॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट१०)
हिरण्यकशिपु
के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
नैर्ॠतास्ते समादिष्टा भर्त्रा वै
शूलपाणयः
तिग्मदंष्ट्रकरालास्यास्ताम्रश्मश्रुशिरोरुहाः
||३९||
नदन्तो
भैरवं नादं छिन्धि भिन्धीति वादिनः
आसीनं
चाहनन्शूलैः प्रह्लादं सर्वमर्मसु ||४०||
परे
ब्रह्मण्यनिर्देश्ये भगवत्यखिलात्मनि
युक्तात्मन्यफला
आसन्नपुण्यस्येव सत्क्रियाः ||४१||
जब
हिरण्यकशिपु ने दैत्योंको इस प्रकार आज्ञा दी, तब तीखी दाढ़, विकराल वदन, लाल-
लाल दाढ़ी-मूँछ एवं केशोंवाले दैत्य हाथोंमें त्रिशूल ले-लेकर ‘मारो, काटो’—इस प्रकार बड़े
जोरसे चिल्लाने लगे। प्रह्लाद चुपचाप बैठे हुए थे और दैत्य उनके सभी
मर्मस्थानोंमें शूलसे घाव कर रहे थे ॥ ३९-४० ॥ उस समय प्रह्लादजी का चित्त उन
परमात्मामें लगा हुआ था, जो मन-वाणी के अगोचर, सर्वात्मा, समस्त शक्तियों के आधार एवं परब्रह्म
हैं। इसलिये उनके सारे प्रहार ठीक वैसे ही निष्फल हो गये, जैसे
भाग्यहीनों के बड़े-बड़े उद्योग-धंधे व्यर्थ होते हैं ॥ ४१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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