सोमवार, 24 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रिं
स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः
महीयसां पादरजोऽभिषेकं
निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ||३२||
इत्युक्त्वोपरतं पुत्रं हिरण्यकशिपू रुषा
अन्धीकृतात्मा स्वोत्सङ्गान्निरस्यत महीतले ||३३|
आहामर्षरुषाविष्टः कषायीभूतलोचनः
वध्यतामाश्वयं वध्यो निःसारयत नैर्ॠताः ||३४||
अयं मे भ्रातृहा सोऽयं हित्वा स्वान्सुहृदोऽधमः
पितृव्यहन्तुः पादौ यो विष्णोर्दासवदर्चति ||३५||
विष्णोर्वा साध्वसौ किं नु करिष्यत्यसमञ्जसः
सौहृदं दुस्त्यजं पित्रोरहाद्यः पञ्चहायनः ||३६||
परोऽप्यपत्यं हितकृद्यथौषधं
स्वदेहजोऽप्यामयवत्सुतोऽहितः
छिन्द्यात्तदङ्गं यदुतात्मनोऽहितं
शेषं सुखं जीवति यद्विवर्जनात्       ||३७||
सर्वैरुपायैर्हन्तव्यः सम्भोजशयनासनैः
सुहृल्लिङ्गधरः शत्रुर्मुनेर्दुष्टमिवेन्द्रियम् ||३८||

जिनकी बुद्धि भगवान्‌ के चरणकमलोंका स्पर्श कर लेती है, उनके जन्म-मृत्युरूप अनर्थका सर्वथा नाश हो जाता है। परंतु जो लोग अकिञ्चन भगवत्प्रेमी महात्माओं के चरणोंकी धूलमें स्नान नहीं कर लेते, उनकी बुद्धि काम्यकर्मों का पूरा सेवन करने पर भी भगवच्चरणों का स्पर्श नहीं कर सकती ॥ ३२ ॥
प्रह्लाद जी इतना कहकर चुप हो गये। हिरण्यकशिपु ने क्रोध के मारे अन्धा होकर उन्हें अपनी गोद से उठाकर भूमिपर पटक दिया ॥ ३३ ॥ प्रह्लाद की बात को वह सह न सका । रोष के मारे उसके नेत्र लाल हो गये। वह कहने लगादैत्यो ! इसे यहाँ से बाहर ले जाओ और तुरंत मार डालो। यह मार ही डालनेयोग्य है ॥ ३४ ॥ देखो तो सहीजिसने इसके चाचा को मार डाला, अपने सुहृद्- स्वजनों को छोडक़र यह नीच दास के समान उसी विष्णु के चरणोंकी पूजा करता है ! हो-न-हो, इसके रूप में मेरे भाई को मारनेवाला विष्णु ही आ गया है ॥ ३५ ॥ अब यह विश्वासके योग्य नहीं है। पाँच बरस की अवस्था में ही जिसने अपने माता-पिताके दुस्त्यज वात्सल्यस्नेह को भुला दियावह कृतघ्न भला, विष्णु का ही क्या हित करेगा ॥ ३६ ॥ कोई दूसरा भी यदि औषधके समान भलाई करे तो वह एक प्रकारसे पुत्र ही है। पर यदि अपना पुत्र भी अहित करने लगे तो रोगके समान वह शत्रु है। अपने शरीरके ही किसी अङ्गसे सारे शरीरको हानि होती हो तो उसको काट डालना चाहिये। क्योंकि उसे काट देने से शेष शरीर सुख से जी सकता है ॥ ३७ ॥ यह स्वजन का बाना पहनकर मेरा कोई शत्रु ही आया है। जैसे योगी की भोगलोलुप इन्द्रियाँ उसका अनिष्ट करती हैं, वैसे ही यह मेरा अहित करनेवाला है। इसलिये खाने, सोने, बैठने आदि के समय किसी भी उपाय से इसे मार डालो॥ ३८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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