सोमवार, 24 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

श्रीगुरुपुत्र उवाच
न मत्प्रणीतं न परप्रणीतं सुतो वदत्येष तवेन्द्र शत्रो
नैसर्गिकीयं मतिरस्य राजन्नियच्छ मन्युं कददाः स्म मा नः ||२८||

श्रीनारद उवाच
गुरुणैवं प्रतिप्रोक्तो भूय आहासुरः सुतम्
न चेद्गुरुमुखीयं ते कुतोऽभद्रा सती मतिः ||२९||

श्रीप्रह्लाद उवाच
मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं
पुनः पुनश्चर्वितचर्वणानाम् ||३०||
न ते विदुः स्वार्थगतिं हि विष्णुं
दुराशया ये बहिरर्थमानिनः
अन्धा यथान्धैरुपनीयमाना-
स्तेऽपीशतन्त्र्यामुरुदाम्नि बद्धाः ||३१||

गुरुपुत्रने कहाइन्द्रशत्रो ! आपका पुत्र जो कुछ कह रहा है, वह मेरे या और किसी के बहकाने से नहीं कह रहा है। राजन् ! यह तो इस की जन्मजात स्वाभाविक बुद्धि है । आप क्रोध शान्त कीजिये । व्यर्थ में हमें दोष न लगाइये ॥ २८ ॥
नारदजी कहते हैंयुधिष्ठिर ! जब गुरुजी ने ऐसा उत्तर दिया, तब हिरण्यकशिपु ने फिर प्रह्लाद से पूछा—‘क्यों रे ! यदि तुझे ऐसी अहित करनेवाली खोटी बुद्धि गुरुमुख से नहीं मिली तो बता, कहाँसे प्राप्त हुई ?’ ॥ २९ ॥
प्रह्लादजीने कहापिताजी ! संसारके लोग तो पिसे हुएको पीस रहे हैं, चबाये हुए को चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियाँ वशमें न होनेके कारण वे भोगे हुए विषयों को ही फिर-फिर भोगने के लिये संसाररूप घोर नरक की ओर जा रहे हैं। ऐसे गृहासक्त पुरुषों की बुद्धि अपने-आप किसी के सिखाने से अथवा अपने ही जैसे लोगोंके सङ्ग से भगवान्‌ श्रीकृष्णमें नहीं लगती ॥ ३० ॥ जो इन्द्रियों से दीखनेवाले बाह्य विषयों को परम इष्ट समझकर मूर्खतावश अन्धों के पीछे अन्धों की तरह गड्ढेमें गिरनेके लिये चले जा रहे हैं और वेदवाणीरूप रस्सीकेकाम्यकर्मों के दीर्घ बन्धन में बँधे हुए हैं, उनको यह बात मालूम नहीं कि हमारे स्वार्थ और परमार्थ भगवान्‌ विष्णु ही हैंउन्हीं की प्राप्ति से हमें सब पुरुषार्थोंकी प्राप्ति हो सकती है ॥ ३१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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