॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
हिरण्यकशिपु
के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
हिरण्यकशिपुरुवाच
प्रह्रादानूच्यतां
तात स्वधीतं किञ्चिदुत्तमम्
कालेनैतावतायुष्मन्यदशिक्षद्गुरोर्भवान्
||२२||
श्रीप्रह्लाद
उवाच
श्रवणं
कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्
अर्चनं
वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ||२३||
इति
पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा
क्रियेत
भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ||२४||
निशम्यैतत्सुतवचो
हिरण्यकशिपुस्तदा
गुरुपुत्रमुवाचेदं
रुषा प्रस्फुरिताधरः ||२५||
ब्रह्मबन्धो
किमेतत्ते विपक्षं श्रयतासता
असारं
ग्राहितो बालो मामनादृत्य दुर्मते ||२६||
सन्ति
ह्यसाधवो लोके दुर्मैत्राश्छद्मवेषिणः
तेषामुदेत्यघं
काले रोगः पातकिनामिव ||२७||
हिरण्यकशिपुने
कहा—चिरञ्जीव बेटा प्रह्लाद ! इतने दिनों में
तुमने गुरुजी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उसमेंसे कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ ॥ २२ ॥
प्रह्लादजी ने कहा—पिताजी !
विष्णुभगवान् की भक्ति के नौ भेद हैं—भगवान् के गुण-लीला- नाम आदि का
श्रवण,
उन्हीं का
कीर्तन,
उनके रूप-नाम आदि का
स्मरण,
उनके चरणों की
सेवा,
पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य,
सख्य और आत्मनिवेदन ।
यदि भगवान् के प्रति समर्पण के
भावसे यह नौ प्रकारकी भक्ति की जाय, तो मैं उसीको उत्तम
अध्ययन समझता हूँ ॥ २३-२४ ॥ प्रह्लादकी यह बात सुनते ही क्रोध के मारे हिरण्यकशिपु के ओठ फडक़ने लगे। उसने गुरुपुत्र से कहा— ॥ २५ ॥ रे नीच
ब्राह्मण ! यह तेरी कैसी करतूत है; दुर्बुद्धि ! तूने मेरी
कुछ भी परवाह न करके इस बच्चे को कैसी निस्सार शिक्षा दे दी ? अवश्य ही तू हमारे शत्रुओं के
आश्रित है ॥ २६ ॥ संसारमें ऐसे दुष्टों की कमी नहीं है, जो मित्र का बाना
धारण कर छिपे-छिपे शत्रु का
काम करते हैं। परंतु उनकी कलई ठीक वैसे ही खुल जाती है, जैसे छिपकर पाप करनेवालों का
पाप समय पर रोग के
रूप में प्रकट होकर उनकी पोल खोल देता है ॥ २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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