॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
हिरण्यकशिपु
के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
तत
एनं गुरुर्ज्ञात्वा ज्ञातज्ञेयचतुष्टयम्
दैत्येन्द्रं
दर्शयामास मातृमृष्टमलङ्कृतम् ||१९||
पादयोः
पतितं बालं प्रतिनन्द्याशिषासुरः
परिष्वज्य
चिरं दोर्भ्यां परमामाप निर्वृतिम् ||२०||
आरोप्याङ्कमवघ्राय
मूर्धन्यश्रुकलाम्बुभिः
आसिञ्चन्विकसद्वक्त्रमिदमाह
युधिष्ठिर ||२१||
कुछ
समय के बाद जब गुरुजी ने देखा कि प्रह्लाद ने साम, दान,
भेद और दण्ड के सम्बन्ध की सारी बातें जान ली हैं, तब वे उन्हें उनकी माँ के
पास ले गये । माता ने
बड़े लाड़-प्यार से उन्हें नहला-धुलाकर अच्छी तरह गहने-कपड़ों से
सजा दिया । इसके बाद वे उन्हें हिरण्यकशिपु के पास ले गये
॥ १९ ॥ प्रह्लाद अपने पिता के चरणों में
लोट गये। हिरण्यकशिपु ने उन्हें
आशीर्वाद दिया और दोनों हाथों से उठाकर बहुत देर तक
गले से लगाये रखा। उस समय दैत्यराज का हृदय आनन्द से भर रहा था ॥ २० ॥ युधिष्ठिर !
हिरण्यकशिपु ने प्रसन्नमुख प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर
उनका सिर सूँघा। उनके नेत्रों से
प्रेम के आँसू गिर-गिरकर प्रह्लाद के शरीर को भिगोने लगे। उसने अपने पुत्र से पूछा ॥ २१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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