॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
हिरण्यकशिपु
के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
श्रीनारद
उवाच
एतावद्ब्राह्मणायोक्त्वा
विरराम महामतिः
तं
सन्निभर्त्स्य कुपितः सुदीनो राजसेवकः ||१५||
आनीयतामरे
वेत्रमस्माकमयशस्करः
कुलाङ्गारस्य
दुर्बुद्धेश्चतुर्थोऽस्योदितो दमः ||१६||
दैतेयचन्दनवने
जातोऽयं कण्टकद्रुमः
यन्मूलोन्मूलपरशोर्विष्णोर्नालायितोऽर्भकः
||१७||
इति
तं विविधोपायैर्भीषयंस्तर्जनादिभिः
प्रह्लादं
ग्राहयामास त्रिवर्गस्योपपादनम् ||१८||
नारदजी
कहते हैं—परमज्ञानी प्रह्लाद अपने गुरु जी से इतना कहकर चुप हो गये। पुरोहित बेचारे
राजा के सेवक एवं पराधीन थे। वे डर गये। उन्होंने क्रोध से प्रह्लाद को झिडक़ दिया
और कहा— ॥ १५ ॥ ‘अरे, कोई मेरा बेंत तो लाओ । यह हमारी कीर्ति में कलङ्क लगा रहा है। इस
दुर्बुद्धि कुलाङ्गार को ठीक करने के लिये चौथा उपाय दण्ड ही उपयुक्त होगा ॥ १६ ॥
दैत्यवंश के चन्दनवन में यह काँटेदार बबूल कहाँ से पैदा हुआ ? जो विष्णु इस वन की जड़ काटने में कुल्हाड़े का काम करते हैं, यह नादान बालक उन्हीं की बेंट बन रहा है; सहायक हो
रहा है ॥ १७ ॥ इस प्रकार गुरुजी ने तरह-तरहसे डाँट-डपटकर प्रह्लाद को धमकाया और
अर्थ, धर्म एवं कामसम्बन्धी शिक्षा दी ॥१८॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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