॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
हिरण्यकशिपु
के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
स
यदानुव्रतः पुंसां पशुबुद्धिर्विभिद्यते
अन्य
एष तथान्योऽहमिति भेदगतासती ||१२||
स
एष आत्मा स्वपरेत्यबुद्धिभि-
र्दुरत्ययानुक्रमणो
निरूप्यते
मुह्यन्ति
यद्वर्त्मनि वेदवादिनो
ब्रह्मादयो
ह्येष भिनत्ति मे मतिम् ||१३||
यथा
भ्राम्यत्ययो ब्रह्मन्स्वयमाकर्षसन्निधौ
तथा
मे भिद्यते चेतश्चक्रपाणेर्यदृच्छया ||१४||
(प्रह्लादजी
कह रहे हैं) वे भगवान् ही जब कृपा करते हैं, तब मनुष्यों की
पाशविक बुद्धि नष्ट होती है। इस पशुबुद्धि के कारण ही तो ‘यह
मैं हूँ और यह मुझसे भिन्न है’ इस प्रकार का झूठा भेदभाव
पैदा होता है ॥ १२ ॥ वही परमात्मा यह आत्मा है। अज्ञानी लोग अपने और पराये का भेद
करके उसी का वर्णन किया करते हैं। उनका न जानना भी ठीक ही है; क्योंकि उसके तत्त्व को जानना बहुत कठिन है और ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े
वेदज्ञ भी उसके विषय में मोहित हो जाते हैं। वही परमात्मा आपलोगों के शब्दों में
मेरी बुद्धि ‘बिगाड़’ रहा है ॥ १३ ॥
गुरुजी ! जैसे चुम्बक के पास लोहा स्वयं खिंच आता है, वैसे
ही चक्रपाणि भगवान् की स्वच्छन्द इच्छा शक्ति से मेरा चित्त भी संसार से अलग होकर
उनकी ओर बरबस खिंच जाता है ॥ १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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