॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट११)
नारद-युधिष्ठिर-संवाद
और जय-विजय की कथा
ततस्तौ
राक्षसौ जातौ केशिन्यां विश्रवःसुतौ
रावणः
कुम्भकर्णश्च सर्वलोकोपतापनौ ||४३||
तत्रापि
राघवो भूत्वा न्यहनच्छापमुक्तये
रामवीर्यं
श्रोष्यसि त्वं मार्कण्डेयमुखात्प्रभो ||४४||
तावत्र
क्षत्रियौ जातौ मातृष्वस्रात्मजौ तव
अधुना
शापनिर्मुक्तौ कृष्णचक्रहतांहसौ ||४५||
वैरानुबन्धतीव्रेण
ध्यानेनाच्युतसात्मताम्
नीतौ
पुनर्हरेः पार्श्वं जग्मतुर्विष्णुपार्षदौ ||४६||
श्रीयुधिष्ठिर
उवाच
विद्वेषो
दयिते पुत्रे कथमासीन्महात्मनि
ब्रूहि
मे भगवन्येन प्रह्लादस्याच्युतात्मता ||४७|
युधिष्ठिर
! वे ही दोनों विश्रवा मुनिके द्वारा केशिनी (कैकसी) के गर्भ से राक्षसों के
रूपमें पैदा हुए। उनका नाम था रावण और कुम्भकर्ण। उनके उत्पातोंसे सब लोकों में
आग-सी लग गयी थी ॥ ४३ ॥ उस समय भी भगवान् ने उन्हें शाप से छुड़ाने के लिये
रामरूप से उनका वध किया। युधिष्ठिर ! मार्कण्डेय मुनि के मुख से तुम भगवान्
श्रीरामका चरित्र सुनोगे ॥ ४४ ॥ वे ही दोनों जय-विजय इस जन्ममें तुम्हारी मौसीके
लडक़े शिशुपाल और दन्तवक्त्रके रूपमें क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हुए थे। भगवान्
श्रीकृष्णके चक्रका स्पर्श प्राप्त हो जानेसे उनके सारे पाप नष्ट हो गये और वे
सनकादिके शापसे मुक्त हो गये ॥ ४५ ॥ वैरभाव के कारण निरन्तर ही वे भगवान्
श्रीकृष्णका चिन्तन किया करते थे। उसी तीव्र तन्मयता के फलस्वरूप वे भगवान्को
प्राप्त हो गये और पुन: उनके पार्षद होकर उन्हींके समीप चले गये ॥ ४६ ॥
युधिष्ठिरजीने
पूछा—भगवन् ! हिरण्यकशिपु ने अपने स्नेहभाजन पुत्र प्रह्लाद से इतना द्वेष
क्यों किया ? फिर प्रह्लाद तो महात्मा थे ! साथ ही यह भी
बतलाइये कि किस साधन से प्रह्लाद भगवन्मय हो गये ॥ ४७ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरितोपक्रमे
प्रथमोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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