॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट१०)
नारद-युधिष्ठिर-संवाद
और जय-विजय की कथा
जज्ञाते
तौ दितेः पुत्रौ दैत्यदानववन्दितौ
हिरण्यकशिपुर्ज्येष्ठो
हिरण्याक्षोऽनुजस्ततः ||३९||
हतो
हिरण्यकशिपुर्हरिणा सिंहरूपिणा
हिरण्याक्षो
धरोद्धारे बिभ्रता शौकरं वपुः ||४०||
हिरण्यकशिपुः
पुत्रं प्रह्लादं केशवप्रियम्
जिघांसुरकरोन्नाना
यातना मृत्युहेतवे ||४१||
तं
सर्वभूतात्मभूतं प्रशान्तं समदर्शनम्
भगवत्तेजसा
स्पृष्टं नाशक्नोद्धन्तुमुद्यमैः ||४२||
युधिष्ठिर
! वे ही दोनों दिति के पुत्र हुए। उनमें बड़े का नाम हिरण्यकशिपु था और उससे छोटे का
हिरण्याक्ष। दैत्य और दानवोंके समाजमें यही दोनों सर्वश्रेष्ठ थे ॥ ३९ ॥
विष्णुभगवान् ने नृसिंह का रूप धारण करके हिरण्यकशिपु को और पृथ्वी का उद्धार
करनेके समय वराहावतार ग्रहण करके हिरण्याक्ष को मारा ॥ ४० ॥ हिरण्यकशिपु ने अपने
पुत्र प्रह्लाद को भगवत्प्रेमी होनेके कारण मार डालना चाहा और इसके लिये उन्हें
बहुत-सी यातनाएँ दीं ॥ ४१ ॥ परंतु प्रह्लाद सर्वात्मा भगवान् के परम प्रिय हो
चुके थे,
समदर्शी हो चुके थे। उनके हृदयमें अटल शान्ति थी। भगवान् के प्रभाव
से वे सुरक्षित थे। इसलिये तरह-तरह से चेष्टा करनेपर भी हिरण्यकशिपु उनको मार
डालनेमें समर्थ न हुआ ॥ ४२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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