॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०९)
नारद-युधिष्ठिर-संवाद
और जय-विजय की कथा
श्रीयुधिष्ठिर
उवाच
कीदृशः
कस्य वा शापो हरिदासाभिमर्शनः
अश्रद्धेय
इवाभाति हरेरेकान्तिनां भवः ||३३||
देहेन्द्रि
यासुहीनानां वैकुण्ठपुरवासिनाम्
देहसम्बन्धसम्बद्धमेतदाख्यातुमर्हसि
||३४||
श्रीनारद
उवाच
एकदा
ब्रह्मणः पुत्रा विष्णुलोकं यदृच्छया
सनन्दनादयो
जग्मुश्चरन्तो भुवनत्रयम् ||३५||
पञ्चषड्ढायनार्भाभाः
पूर्वेषामपि पूर्वजाः
दिग्वाससः
शिशून्मत्वा द्वाःस्थौ तान्प्रत्यषेधताम् ||३६||
अशपन्कुपिता
एवं युवां वासं न चार्हथः
रजस्तमोभ्यां
रहिते पादमूले मधुद्विषः
पापिष्ठामासुरीं
योनिं बालिशौ यातमाश्वतः ||३७||
एवं
शप्तौ स्वभवनात्पतन्तौ तौ कृपालुभिः
प्रोक्तौ
पुनर्जन्मभिर्वां त्रिभिर्लोकाय कल्पताम् ||३८||
राजा
युधिष्ठिरने पूछा—नारदजी ! भगवान् के पार्षदों को भी प्रभावित करनेवाला वह शाप किसने दिया
था तथा वह कैसा था ? भगवान् के अनन्य प्रेमी फिर
जन्म-मृत्युमय संसार में आयें, यह बात तो कुछ अविश्वसनीय-सी
मालूम पड़ती है ॥ ३३ ॥ वैकुण्ठ के रहनेवाले लोग प्राकृत शरीर, इन्द्रिय और प्राणोंसे रहित होते हैं। उनका प्राकृत शरीरसे सम्बन्ध किस
प्रकार हुआ, यह बात आप अवश्य सुनाइये ॥ ३४ ॥
नारदजीने
कहा—एक दिन ब्रह्मा के मानसपुत्र सनकादि ऋषि तीनों लोकोंमें स्वच्छन्द विचरण
करते हुए वैकुण्ठमें जा पहुँचे ॥ ३५ ॥ यों तो वे सबसे प्राचीन हैं, परंतु जान पड़ते हैं ऐसे मानों पाँच-छ: बरसके बच्चे हों। वस्त्र भी नहीं
पहनते। उन्हें साधारण बालक समझकर द्वारपालोंने उनको भीतर जानेसे रोक दिया ॥ ३६ ॥
इसपर वे क्रोधित-से हो गये और उन्होंने द्वारपालोंको यह शाप दिया कि ‘मूर्खो ! भगवान् विष्णुके चरण तो रजोगुण और तमोगुणसे रहित हैं। तुम दोनों
इनके समीप निवास करनेयोग्य नहीं हो। इसलिये शीघ्र ही तुम यहाँसे पापमयी असुरयोनि में
जाओ’ ॥ ३७ ॥ उनके इस प्रकार शाप देते ही जब वे वैकुण्ठ से
नीचे गिरने लगे, तब उन कृपालु महात्माओं ने कहा—‘अच्छा तीन जन्मोंमें इस शापको भोगकर तुमलोग फिर इसी वैकुण्ठमें आ जाना’
॥ ३८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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