॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०८)
नारद-युधिष्ठिर-संवाद
और जय-विजय की कथा
गोप्यः
कामाद्भयात्कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः
सम्बन्धाद्वृष्णयः
स्नेहाद्यूयं भक्त्या वयं विभो ||३०||
कतमोऽपि
न वेनः स्यात्पञ्चानां पुरुषं प्रति
तस्मात्केनाप्युपायेन
मनः कृष्णे निवेशयेत् ||३१||
मातृष्वस्रेयो
वश्चैद्यो दन्तवक्रश्च पाण्डव
पार्षदप्रवरौ
विष्णोर्विप्रशापात्पदच्युतौ ||३२||
महाराज
! गोपियों ने भगवान् से मिलन के तीव्र काम अर्थात् प्रेम से, कंस ने भय से, शिशुपाल-दन्तवक्त्र आदि राजाओं ने
द्वेषसे, यदुवंशियोंने परिवार के सम्बन्ध से, तुमलोगों ने स्नेह से और हमलोगों ने भक्ति से अपने मन को भगवान् में
लगाया है ॥ ३० ॥ भक्तोंके अतिरिक्त जो पाँच प्रकारके भगवान् का चिन्तन करने वाले
हैं, उनमेंसे राजा वेनकी तो किसीमें भी गणना नहीं होती
(क्योंकि उसने किसी भी प्रकारसे भगवान् में मन नहीं लगाया था )। सारांश यह कि
चाहे जैसे हो, अपना मन भगवान् श्रीकृष्णमें तन्मय कर देना
चाहिये ॥ ३१ ॥ महाराज ! फिर तुम्हारे मौसेरे भाई शिशुपाल और दन्तवक्त्र दोनों ही
विष्णुभगवान्के मुख्य पार्षद थे। ब्राह्मणोंके शापसे इन दोनोंको अपने पदसे च्युत
होना पड़ा था ॥ ३२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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