॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०७)
नारद-युधिष्ठिर-संवाद
और जय-विजय की कथा
यथा
वैरानुबन्धेन मर्त्यस्तन्मयतामियात्
न
तथा भक्तियोगेन इति मे निश्चिता मतिः ||२६||
कीटः
पेशस्कृता रुद्धः कुड्यायां तमनुस्मरन्
संरम्भभययोगेन
विन्दते तत्स्वरूपताम् ||२७||
एवं
कृष्णे भगवति मायामनुज ईश्वरे
वैरेण
पूतपाप्मानस्तमापुरनुचिन्तया ||२८||
कामाद्द्वेषाद्भयात्स्नेहाद्यथा
भक्त्येश्वरे मनः
आवेश्य
तदघं हित्वा बहवस्तद्गतिं गताः ||२९||
(श्रीशुकदेवजी
कह रहे हैं) युधिष्ठिर ! मेरा तो ऐसा दृढ़ निश्चय है कि
मनुष्य वैरभाव से भगवान् में जितना तन्मय हो जाता है, उतना भक्तियोग से नहीं होता ॥ २६ ॥ भृङ्गी कीड़े को लाकर भीत पर अपने
छिद्र में बंद कर देता है और वह भय तथा उद्वेग से भृङ्गी का चिन्तन करते-करते
उसके-जैसा ही हो जाता है ॥ २७ ॥ यही बात भगवान् श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी है।
लीला के द्वारा मनुष्य मालूम पड़ते हुए ये सर्वशक्तिमान् भगवान् ही तो हैं। इनसे
वैर करनेवाले भी इनका चिन्तन करते-करते पापरहित होकर इन्हींको प्राप्त हो गये ॥ २८
॥ एक नहीं, अनेकों मनुष्य काम से, द्वेष
से, भय से और स्नेह से अपने मन को भगवान् में लगाकर एवं
अपने सारे पाप धोकर उसी प्रकार भगवान् को प्राप्त हुए हैं, जैसे
भक्त भक्ति से ॥२९॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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