॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०६)
नारद-युधिष्ठिर-संवाद
और जय-विजय की कथा
श्रीबादरायणिरुवाच
राज्ञस्तद्वच
आकर्ण्य नारदो भगवानृषिः
तुष्टः
प्राह तमाभाष्य शृण्वत्यास्तत्सदः कथाः ||२१||
श्रीनारद
उवाच
निन्दनस्तवसत्कार
न्यक्कारार्थं कलेवरम्
प्रधानपरयो
राजन्नविवेकेन कल्पितम् ||२२||
हिंसा
तदभिमानेन दण्डपारुष्ययोर्यथा
वैषम्यमिह
भूतानां ममाहमिति पार्थिव ||२३||
यन्निबद्धोऽभिमानोऽयं
तद्वधात्प्राणिनां वधः
तथा
न यस्य कैवल्यादभिमानोऽखिलात्मनः
परस्य
दमकर्तुर्हि हिंसा केनास्य कल्प्यते ||२४||
तस्माद्वैरानुबन्धेन
निर्वैरेण भयेन वा
स्नेहात्कामेन
वा युञ्ज्यात्कथञ्चिन्नेक्षते पृथक् ||२५||
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—सर्वसमर्थ देवर्षि नारद राजाके ये प्रश्न सुनकर बहुत प्रसन्न हुए।
उन्होंने युधिष्ठिर को सम्बोधित करके भरी सभा में सबके सुनते हुए यह कथा कही ॥ २१
॥
नारदजी
ने कहा—युधिष्ठिर ! निन्दा,स्तुति सत्कार और तिरस्कार—इस शरीर के ही तो होते हैं। इस शरीरकी कल्पना प्रकृति और पुरुषका ठीक-ठीक
विवेक न होने के कारण ही हुई है ॥२२॥ जब इस शरीर को ही अपना आत्मा मान लिया जाता
है, तब ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’
ऐसा भाव बन जाता है। यही सारे भेदभावका मूल है। इसीके कारण ताडऩा और
दुर्वचनोंसे पीड़ा होती है ॥ २३ ॥ जिस शरीर में अभिमान हो जाता है कि ‘यह मैं हूँ’, उस शरीर के वध से प्राणियों को अपना वध
जान पड़ता है। किन्तु भगवान् में तो जीवों के समान ऐसा अभिमान है नहीं; क्योंकि वे सर्वात्मा हैं, अद्वितीय हैं। वे जो
दूसरोंको दण्ड देते हैं—वह भी उनके कल्याणके लिये ही,
क्रोधवश अथवा द्वेषवश नहीं। तब भगवान् के सम्बन्ध में हिंसा की
कल्पना तो की ही कैसे जा सकती है ॥ २४ ॥ इसलिये चाहे सुदृढ़ वैरभाव से या वैरहीन
भक्तिभाव से, भय से, स्नेह से अथवा
कामना से—कैसे भी हो, भगवान् में अपना
मन पूर्णरूप से लगा देना चाहिये । भगवान्की दृष्टि से इन भावों में कोई भेद नहीं
है ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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