॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – दूसरा
अध्याय..(पोस्ट०९)
हिरण्याक्ष
का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का
अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना
न
श्रोता नानुवक्तायं मुख्योऽप्यत्र महानसुः ।
यस्त्विहेन्द्रियवानात्मा
स चान्यः प्राणदेहयोः ॥ ४५॥
भूतेन्द्रियमनोलिङ्गान्
देहानुच्चावचान् विभुः ।
भजत्युत्सृजति
ह्यन्यस्तच्चापि स्वेन तेजसा ॥ ४६॥
यावल्लिङ्गान्वितो
ह्यात्मा तावत्कर्मनिबन्धनम् ।
ततो
विपर्ययः क्लेशो मायायोगोऽनुवर्तते ॥ ४७॥
(तुम्हारी
यह मान्यता कि ‘प्राण ही बोलने या सुननेवाला था, सो निकल गया’
मूर्खतापूर्ण है; क्योंकि सुषुप्ति के समय
प्राण तो रहता है, पर न वह बोलता है न सुनता है।) शरीर में
सब इन्द्रियों की चेष्टा का हेतुभूत जो महाप्राण है, वह
प्रधान होनेपर भी बोलने या सुननेवाला नहीं है; क्योंकि वह जड
है। देह और इन्द्रियों के द्वारा सब पदार्थों का द्रष्टा जो आत्मा है, वह शरीर और प्राण दोनों से पृथक् है ॥ ४५ ॥ यद्यपि वह परिच्छिन्न नहीं है,
व्यापक है—फिर भी पञ्चभूत, इन्द्रिय और मनसे युक्त नीचे-ऊँचे (देव, मनुष्य,
पशु, पक्षी आदि) शरीरों को ग्रहण करता और अपने
विवेकबल से मुक्त भी हो जाता है। वास्तव में वह इन सबसे अलग है ॥ ४६ ॥ जबतक वह
पाँच प्राण, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच
ज्ञानेन्द्रिय, बुद्धि और मन—इन सत्रह
तत्त्वोंसे बने हुए लिङ्गशरीर से युक्त
रहता है, तभीतक कर्मों से बँधा रहता है और इस बन्धन के कारण
ही माया से होनेवाले मोह और क्लेश बराबर उसके पीछे पड़े रहते हैं ॥ ४७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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