॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – दूसरा
अध्याय..(पोस्ट०६)
हिरण्याक्ष
का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का
अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना
सम्भवश्च
विनाशश्च शोकश्च विविधः स्मृतः ।
अविवेकश्च
चिन्ता च विवेकास्मृतिरेव च ॥ २६॥
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं
पुरातनम् ।
यमस्य
प्रेतबन्धूनां संवादं तं निबोधत ॥ २७॥
उशीनरेष्वभूद्राजा
सुयज्ञ इति विश्रुतः ।
सपत्नैर्निहतो
युद्धे ज्ञातयस्तमुपासत ॥ २८॥
विशीर्णरत्नकवचं
विभ्रष्टाभरणस्रजम् ।
शरनिर्भिन्नहृदयं
शयानमसृगाविलम् ॥ २९॥
प्रकीर्णकेशं
ध्वस्ताक्षं रभसा दष्टदच्छदम् ।
रजःकुण्ठमुखाम्भोजं
छिन्नायुधभुजं मृधे ॥ ३०॥
उशीनरेन्द्रं
विधिना तथा कृतं
पतिं
महिष्यः प्रसमीक्ष्य दुःखिताः ।
हताः
स्म नाथेति करैरुरो भृशं
घ्नन्त्यो
मुहुस्तत्पदयोरुपापतन् ॥ ३१॥
रुदत्य
उच्चैर्दयिताङ्घ्रिपङ्कजं
सिञ्चन्त्य
अस्रैः कुचकुङ्कुमारुणैः ।
विस्रस्तकेशाभरणाः
शुचं नृणां
सृजन्त्य
आक्रन्दनया विलेपिरे ॥ ३२॥
अहो
विधात्राकरुणेन नः प्रभो
भवान्
प्रणीतो दृगगोचरां दशाम् ।
उशीनराणामसि
वृत्तिदः पुरा
कृतोऽधुना
येन शुचां विवर्धनः ॥ ३३॥
त्वया
कृतज्ञेन वयं महीपते
कथं
विना स्याम सुहृत्तमेन ते ।
तत्रानुयानं
तव वीर पादयोः
शुश्रूषतीनां
दिश यत्र यास्यसि ॥ ३४॥
जन्म, मृत्यु, अनेकों प्रकारके शोक, अविवेक,
चिन्ता और विवेककी विस्मृति—सबका कारण यह
अज्ञान ही है ॥ २६ ॥ इस विषय में महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह
इतिहास मरे हुए मनुष्य के सम्बन्धियों के साथ यमराजकी बातचीत है। तुमलोग ध्यानसे
उसे सुनो ॥ २७ ॥
उशीनर
देश में एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका नाम था सुयज्ञ। लड़ाईमें शत्रुओं ने उसे मार
डाला। उस समय उसके भाई-बन्धु उसे घेरकर बैठ गये ॥ २८ ॥ उसका जड़ाऊ कवच छिन्नभिन्न
हो गया था। गहने और मालाएँ तहस-नहस हो गयीं थीं। बाणों की मार से कलेजा फट गया था।
शरीर खूनसे लथपथ था। बाल बिखर गये थे। आँखें धँस गयी थीं। क्रोध के मारे दाँतों से
उसके होठ दबे हुए थे। कमल के समान मुख धूल से ढक गया था। युद्धमें उसके शस्त्र और
बाँहें कट गयी थीं ॥ २९-३० ॥ रानियों को दैववश अपने पतिदेव उशीनर नरेश की यह दशा
देखकर बड़ा दु:ख हुआ । वे ‘हा नाथ ! हम अभागिनें तो बेमौत मारी गयीं।’ यों कहकर
बार-बार जोरसे छाती पीटती हुई अपने स्वामी के चरणों के पास गिर पड़ीं ॥ ३१ ॥ वे
जोर-जोर से इतना रोने लगीं कि उनके कुच-कुङ्कुम से मिलकर बहते हुए लाल-लाल आँसुओं ने
प्रियतम के पादपद्म पखार दिये। उनके केश और गहने इधर-उधर बिखर गये। वे
करुण-क्रन्दन के साथ विलाप कर रही थीं, जिसे सुनकर मनुष्यों के
हृदय में शोक का संचार हो जाता था ॥ ३२ ॥ ‘हाय ! विधाता बड़ा
क्रूर है। स्वामिन् ! उसी ने आज आपको हमारी आँखोंसे ओझल कर दिया। पहले तो आप समस्त
देशवासियों के जीवनदाता थे। आज उसीने आपको ऐसा बना दिया कि आप हमारा शोक बढ़ा रहे
हैं ॥ ३३ ॥ पतिदेव आप हमसे बड़ा प्रेम करते थे, हमारी
थोड़ी-सी सेवा को भी बड़ी करके मानते थे। हाय ! अब आपके बिना हम कैसे रह सकेंगी।
हम आपके चरणों की चेरी हैं। वीरवर ! आप जहाँ जा रहे हैं, वहीं
चलने की हमें भी आज्ञा दीजिये’ ॥ ३४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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