॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – दूसरा
अध्याय..(पोस्ट०५)
हिरण्याक्ष
का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का
अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना
नित्य
आत्माव्ययः शुद्धः सर्वगः सर्ववित्परः ।
धत्तेऽसावात्मनो
लिङ्गं मायया विसृजन् गुणान् ॥ २२॥
यथाम्भसा
प्रचलता तरवोऽपि चला इव ।
चक्षुषा
भ्राम्यमाणेन दृश्यते चलतीव भूः ॥ २३॥
एवं
गुणैर्भ्राम्यमाणे मनस्यविकलः पुमान् ।
याति
तत्साम्यतां भद्रे ह्यलिङ्गो लिङ्गवानिव ॥ २४॥
एष
आत्मविपर्यासो ह्यलिङ्गे लिङ्गभावना ।
एष
प्रियाप्रियैर्योगो वियोगः कर्मसंसृतिः ॥ २५॥
वास्तव
में आत्मा नित्य,
अविनाशी, शुद्ध, सर्वगत,
सर्वज्ञ और देह-इन्द्रिय आदि से पृथक् है। वह अपनी अविद्या से ही
देह आदि की सृष्टि करके भोगों के साधन सूक्ष्मशरीर को स्वीकार करता है ॥ २२ ॥ जैसे
हिलते हुए पानी के साथ उस में प्रतिबिम्बित होनेवाले वृक्ष भी हिलते-से जान पड़ते
हैं और घुमायी जाती हुई आँख के साथ सारी पृथ्वी ही घूमती-सी दिखायी देती है,
कल्याणी ! वैसे ही विषयों के कारण मन भटकने लगता है और वास्तव में
निर्विकार होनेपर भी उसीके समान आत्मा भी भटकता हुआ-सा जान पड़ता है। उसका स्थूल
और सूक्ष्मशरीरों से कोई भी सम्बन्ध नहीं है, फिर भी वह
सम्बन्धी-सा जान पड़ता है ॥ २३-२४ ॥ सब प्रकार से शरीररहित आत्मा को शरीर समझ लेना—यही तो अज्ञान है। इसी से प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुओं का मिलना और बिछुडऩा
होता है । इसी से कर्मों के साथ सम्बन्ध हो जाने के कारण संसार में भटकना पड़ता है
॥२५॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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