शनिवार, 8 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना

हिरण्यकशिपुर्भ्रातुः सम्परेतस्य दुःखितः ।
कृत्वा कटोदकादीनि भ्रातृपुत्रानसान्त्वयत् ॥ १७॥
शकुनिं शम्बरं धृष्टिं भूतसन्तापनं वृकम् ।
कालनाभं महानाभं हरिश्मश्रुमथोत्कचम् ॥ १८॥
तन्मातरं रुषाभानुं दितिं च जननीं गिरा ।
श्लक्ष्णया देशकालज्ञ इदमाह जनेश्वर ॥ १९॥

श्रीहिरण्यकशिपुरुवाच
अम्बाम्ब हे वधूः पुत्रा वीरं मार्हथ शोचितुम् ।
रिपोरभिमुखे श्लाघ्यः शूराणां वध ईप्सितः ॥ २०॥
भूतानामिह संवासः प्रपायामिव सुव्रते ।
दैवेनैकत्र नीतानामुन्नीतानां स्वकर्मभिः ॥ २१॥

युधिष्ठिर ! भाई की मृत्यु से हिरण्यकशिपु को बड़ा दु:ख हुआ था। जब उसने उसकी अन्त्येष्टि क्रियासे छुट्टी पा ली, तब शकुनि, शम्बर, धृष्ट, भूतसन्तापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिश्मश्रु और उत्कच अपने इन भतीजों को सान्त्वना दी ॥ १७-१८ ॥ उनकी माता रुषाभानु को और अपनी माता दिति को देश-काल के अनुसार मधुर वाणीसे समझाते हुए कहा ॥ १९ ॥
हिरण्यकशिपु ने कहामेरी प्यारी माँ, बहू और पुत्रो ! तुम्हें वीर हिरण्याक्ष के लिये किसी प्रकार का शोक नहीं करना चाहिये। वीर पुरुष तो ऐसा चाहते ही हैं कि लड़ाई के मैदान में अपने शत्रु के सामने उसके दाँत खट्टे करके प्राण त्याग करें; वीरों के लिये ऐसी ही मृत्यु श्लाघनीय होती है ॥ २० ॥ देवि ! जैसे प्याऊ पर बहुत-से लोग इकट्ठे हो जाते हैं, परंतु उनका मिलना-जुलना थोड़ी देरके लिये ही होता हैवैसे ही अपने कर्मों के फेर से दैववश जीव भी मिलते और बिछुड़ते हैं ॥ २१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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