॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – दूसरा
अध्याय..(पोस्ट०३)
हिरण्याक्ष
का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का
अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना
विष्णुर्द्विजक्रियामूलो
यज्ञो धर्ममयः पुमान् ।
देवर्षिपितृभूतानां
धर्मस्य च परायणम् ॥ ११॥
यत्र
यत्र द्विजा गावो वेदा वर्णाश्रमक्रियाः ।
तं
तं जनपदं यात सन्दीपयत वृश्चत ॥ १२॥
इति
ते भर्तृनिर्देशमादाय शिरसादृताः ।
तथा
प्रजानां कदनं विदधुः कदनप्रियाः ॥ १३॥
पुरग्रामव्रजोद्यान
क्षेत्रारामाश्रमाकरान् ।
खेटखर्वटघोषांश्च
ददहुः पत्तनानि च ॥ १४॥
केचित्खनित्रैर्बिभिदुः
सेतुप्राकारगोपुरान् ।
आजीव्यांश्चिच्छिदुर्वृक्षान्
केचित्परशुपाणयः ।
प्रादहन्
शरणान्येके प्रजानां ज्वलितोल्मुकैः ॥ १५॥
एवं
विप्रकृते लोके दैत्येन्द्रानुचरैर्मुहुः ।
दिवं
देवाः परित्यज्य भुवि चेरुरलक्षिताः ॥ १६॥
विष्णु
की जड़ है द्विजातियोंका धर्म-कर्म; क्योंकि यज्ञ और
धर्म ही उसके स्वरूप हैं। देवता, ऋषि, पितर,
समस्त प्राणी और धर्मका वही परम आश्रय है ॥११॥ जहाँ-जहाँ ब्राह्मण,
गाय, वेद, वर्णाश्रम और
धर्म-कर्म हों, उन-उन देशों में तुम लोग जाओ, उन्हें जला दो,उजाड़ डालो’ ॥१२॥
दैत्य तो स्वभाव से ही लोगों को सताकर सुखी होते हैं। दैत्यराज हिरण्यकशिपु की
आज्ञा उन्होंने बड़े आदर से सिर झुकाकर स्वीकार की और उसी के अनुसार जनता का नाश
करने लगे ॥ १३ ॥ उन्होंने नगर, गाँव, गौओं
के रहनेके स्थान, बगीचे, खेत, टहलने के स्थान, ऋषियोंके आश्रम, रत्न आदि की खानें, किसानों की बस्तियाँ, तराई के गाँव,अहीरों की बस्तियाँ और व्यापार के
केन्द्र बड़े-बड़े नगर जला डाले ॥ १४ ॥ कुछ दैत्यों ने खोदने के शस्त्रों से
बड़े-बड़े पुल, परकोटे और नगर के फाटकों को तोड़-फोड़ डाला
तथा दूसरों ने कुल्हाडिय़ों से फले-फूले, हरे-भरे पेड़ काट
डाले। कुछ दैत्योंने जलती हुई लकडिय़ों से लोगों के घर जला दिये ॥ १५ ॥ इस प्रकार
दैत्यों ने निरीह प्रजाका बड़ा उत्पीडऩ किया। उस समय देवतालोग स्वर्ग छोडक़र छिपे
रूपसे पृथ्वी में विचरण करते थे ॥ १६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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