॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – दूसरा
अध्याय..(पोस्ट०२)
हिरण्याक्ष
का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का
अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना
तस्य
त्यक्तस्वभावस्य घृणेर्मायावनौकसः ।
भजन्तं
भजमानस्य बालस्येवास्थिरात्मनः ॥ ७॥
मच्छूलभिन्नग्रीवस्य
भूरिणा रुधिरेण वै ।
असृक्प्रियं
तर्पयिष्ये भ्रातरं मे गतव्यथः ॥ ८॥
तस्मिन्
कूटेऽहिते नष्टे कृत्तमूले वनस्पतौ ।
विटपा
इव शुष्यन्ति विष्णुप्राणा दिवौकसः ॥ ९॥
तावद्यात
भुवं यूयं ब्रह्मक्षत्रसमेधिताम् ।
सूदयध्वं
तपोयज्ञ स्वाध्यायव्रतदानिनः ॥ १० ॥
(हिरण्यकशिपु दैत्यों
और दानवों से कह रहा है) यह विष्णु पहले तो बड़ा शुद्ध और
निष्पक्ष था । परंतु अब माया से वराह आदि रूप धारण करने लगा है और अपने स्वभाव से
च्युत हो गया है। बच्चे की तरह जो उसकी सेवा करे, उसी की ओर
हो जाता है। उसका चित्त स्थिर नहीं है ॥७॥ अब मैं अपने इस शूल से उसका गला काट
डालूँगा और उसके खूनकी धारा से अपने रुधिरप्रेमी भाई का तर्पण करूँगा। तब कहीं
मेरे हृदयकी पीड़ा शान्त होगी ॥ ८ ॥ उस मायावी शत्रुके नष्ट होनेपर, पेडक़ी जड़ कट जानेपर डालियों की तरह सब देवता अपने-आप सूख जायँगे। क्योंकि
उनका जीवन तो विष्णु ही है ॥ ९ ॥ इसलिये तुमलोग इसी समय पृथ्वीपर जाओ। आजकल वहाँ
ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी बहुत बढ़ती हो गयी है। वहाँ जो लोग तपस्या, यज्ञ, स्वाध्याय, व्रत और
दानादि शुभ कर्म कर रहें हों, उन सबको मार डालो ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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