॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट११)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
रायः
कलत्रं पशवः सुतादयो
गृहा
मही कुञ्जरकोशभूतयः
सर्वेऽर्थकामाः
क्षणभङ्गुरायुषः
कुर्वन्ति
मर्त्यस्य कियत्प्रियं चलाः ||३९||
एवं
हि लोकाः क्रतुभिः कृता अमी
क्षयिष्णवः
सातिशया न निर्मलाः
तस्माददृष्टश्रुतदूषणं
परं
भक्त्योक्तयेशं
भजतात्मलब्धये ||४०||
अरे
भाई ! धन,स्त्री,पशु,पुत्र,पुत्री,महल,पृथ्वी,हाथी,खजाना और भाँति-भाँति की विभूतियाँ—और तो क्या, संसार का समस्त धन तथा भोगसामग्रियाँ इस
क्षणभङ्गुर मनुष्य को क्या सुख दे सकती हैं। वे स्वयं ही क्षणभङ्गुर हैं ॥ ३९ ॥
जैसे इस लोककी सम्पत्ति प्रत्यक्ष ही नाशवान् है, वैसे ही
यज्ञोंसे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि लोक भी नाशवान् और आपेक्षिक—एक-दूसरेसे छोटे-बड़े, नीचे-ऊँचे हैं। इसलिये वे भी
निर्दोष नहीं हैं। निर्दोष है केवल परमात्मा। न किसीने उनमें दोष देखा है और न
सुना है। अत: परमात्माकी प्राप्तिके लिये अनन्य भक्तिसे उन्हीं परमेश्वरका भजन
करना चाहिये ॥ ४० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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