॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट१२)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
यदर्थ
इह कर्माणि विद्वन्मान्यसकृन्नरः
करोत्यतो
विपर्यासममोघं विन्दते फलम् ||४१||
सुखाय
दुःखमोक्षाय सङ्कल्प इह कर्मिणः
सदाप्नोतीहया
दुःखमनीहायाः सुखावृतः ||४२||
इसके
सिवा अपने को बड़ा विद्वान् माननेवाला पुरुष इस लोक में जिस उद्देश्य से बार-बार
बहुत-से कर्म करता है,
उस उद्देश्यकी प्राप्ति तो दूर रही—उलटा उसे
उसके विपरीत ही फल मिलता है और निस्सन्देह मिलता है ॥ ४१ ॥ कर्म में प्रवृत्त होने
के दो ही उद्देश्य होते हैं—सुख पाना और दु:ख से छूटना।
परंतु जो पहले कामना न होने के कारण सुखमें निमग्न रहता था, उसे
ही अब कामना के कारण यहाँ सदा-सर्वदा दु:ख ही भोगना पड़ता है ॥ ४२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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