॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट१३)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
कामान्कामयते
काम्यैर्यदर्थमिह पूरुषः
स
वै देहस्तु पारक्यो भङ्गुरो यात्युपैति च ||४३||
किमु
व्यवहितापत्य दारागारधनादयः
राज्यकोशगजामात्य
भृत्याप्ता ममतास्पदाः ||४४||
किमेतैरात्मनस्तुच्छैः
सह देहेन नश्वरैः
अनर्थैरर्थसङ्काशैर्नित्यानन्दरसोदधेः
||४५||
मनुष्य
इस लोक में सकाम कर्मों के द्वारा जिस शरीर के लिये भोग प्राप्त करना चाहता है, वह शरीर ही पराया—स्यार-कुत्तों का भोजन और नाशवान्
है। कभी वह मिल जाता है तो कभी बिछुड़ जाता है ॥ ४३ ॥ जब शरीरकी ही यह दशा है—तब इससे अलग रहनेवाले पुत्र, स्त्री, महल, धन, सम्पत्ति, राज्य, खजाने, हाथी- घोड़े,
मन्त्री, नौकर-चाकर, गुरुजन
और दूसरे अपने कहलानेवालोंकी तो बात ही क्या है ॥ ४४ ॥ ये तुच्छ विषय शरीरके साथ
ही नष्ट हो जाते हैं। ये जान तो पड़ते हैं पुरुषार्थके समान, परंतु हैं वास्तवमें अनर्थरूप ही। आत्मा स्वयं ही अनन्त आनन्दका महान्
समुद्र है। उसके लिये इन वस्तुओंकी क्या आवश्यकता है ? ॥ ४५
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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