॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट१४)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
निरूप्यतामिह
स्वार्थः कियान्देहभृतोऽसुराः
निषेकादिष्ववस्थासु
क्लिश्यमानस्य कर्मभिः ||४६||
कर्माण्यारभते
देही देहेनात्मानुवर्तिना
कर्मभिस्तनुते
देहमुभयं त्वविवेकतः ||४७||
तस्मादर्थाश्च
कामाश्च धर्माश्च यदपाश्रयाः
भजतानीहयात्मानमनीहं
हरिमीश्वरम् ||४८||
भाइयो
! तनिक विचार तो करो—जो जीव गर्भाधान से
लेकर मृत्युपर्यन्त सभी अवस्थाओं में
अपने कर्मों के अधीन होकर क्लेश-ही-क्लेश भोगता है, उसका इस संसार में
स्वार्थ ही क्या है ॥ ४६ ॥ यह जीव सूक्ष्मशरीर को ही अपना
आत्मा मानकर उसके द्वारा अनेकों प्रकार के
कर्म करता है और कर्मों के कारण ही
फिर शरीर ग्रहण करता है। इस प्रकार कर्म से
शरीर और शरीर से कर्मकी परम्परा चल पड़ती है। और ऐसा होता है
अविवेक के कारण ॥ ४७ ॥ इसलिये निष्काम भाव से निष्क्रिय
आत्मस्वरूप भगवान् श्रीहरि का
भजन करना चाहिये। अर्थ,
धर्म और काम—सब उन्हीं के आश्रित हैं, बिना उनकी
इच्छाके नहीं मिल सकते ॥ ४८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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