॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – नवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
प्रह्लादजी
के द्वारा नृसिंहभगवान् की स्तुति
नैवात्मनः
प्रभुरयं निजलाभपूर्णो
मानं
जनादविदुषः करुणो वृणीते
यद्यज्जनो
भगवते विदधीत मानं
तच्चात्मने
प्रतिमुखस्य यथा मुखश्रीः ||११||
तस्मादहं
विगतविक्लव ईश्वरस्य
सर्वात्मना
महि गृणामि यथा मनीषम्
नीचोऽजया
गुणविसर्गमनुप्रविष्टः
पूयेत
येन हि पुमाननुवर्णितेन ||१२||
सर्वशक्तिमान्
प्रभु अपने स्वरूपके साक्षात्कारसे ही परिपूर्ण हैं। उन्हें अपने लिये क्षुद्र
पुरुषोंसे पूजा ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है। वे करुणावश ही भोले भक्तोंके हितके
लिये उनके द्वारा की हुई पूजा स्वीकार कर लेते हैं। जैसे अपने मुखका सौन्दर्य
दर्पणमें दीखनेवाले प्रतिबिम्बको भी सुन्दर बना देता है, वैसे ही भक्त भगवान्के प्रति जो-जो सम्मान प्रकट करता है, वह उसे ही प्राप्त होता है ॥ ११ ॥ इसलिये सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी
होनेपर भी मैं बिना किसी शङ्का के अपनी बुद्धिके अनुसार सब प्रकारसे भगवान् की
महिमा का वर्णन कर रहा हूँ। इस महिमा के गान का ही ऐसा प्रभाव है कि अविद्यावश
संसार-चक्र में पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है ॥ १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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