॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – छठा
अध्याय..(पोस्ट०९)
प्रह्लादजी
का असुर-बालकों को उपदेश
श्रीदैत्यपुत्रा
ऊचुः
प्रह्लाद
त्वं वयं चापि नर्तेऽन्यं विद्महे गुरुम् ।
एताभ्यां
गुरुपुत्राभ्यां बालानामपि हीश्वरौ ॥ २९ ॥
बालस्यान्तःपुरस्थस्य
महत्सङ्गो दुरन्वयः ।
छिन्धि
नः संशयं सौम्य स्यात् चेत् विश्रम्भकारणम् ॥ ३० ॥
प्रह्लादजी
के सहपाठियों ने पूछा—प्रह्लादजी ! इन दोनों गुरुपुत्रों को छोडक़र और किसी गुरु को तो न तुम
जानते हो और न हम । ये ही हम सब बालकों के शासक हैं ॥ २९ ॥ तुम एक तो अभी छोटी
अवस्था के हो और दूसरे जन्म से ही महल में अपनी माँ के पास रहे हो । तुम्हारा
महात्मा नारदजी से मिलना कुछ असङ्गत-सा जान पड़ता है । प्रियवर ! यदि इस विषय में विश्वास दिलाने वाली कोई बात हो तो तुम उसे कहकर
हमारी शङ्का मिटा दो ॥ ३० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते
षष्ठोऽध्यायः॥६॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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