॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – नवाँ
अध्याय..(पोस्ट१३)
प्रह्लादजी
के द्वारा नृसिंहभगवान् की स्तुति
नैतन्मनस्तव
कथासु विकुण्ठनाथ
सम्प्रीयते
दुरितदुष्टमसाधु तीव्रम्
कामातुरं
हर्षशोकभयैषणार्तं
तस्मिन्कथं
तव गतिं विमृशामि दीनः ||३९||
जिह्वैकतोऽच्युत
विकर्षति मावितृप्ता
शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं
श्रवणं कुतश्चित्
घ्राणोऽन्यतश्चपलदृक्क्व
च कर्मशक्तिर्
बह्व्यः
सपत्न्य इव गेहपतिं लुनन्ति ||४०||
एवं
स्वकर्मपतितं भववैतरण्याम्
अन्योन्यजन्ममरणाशनभीतभीतम्
पश्यन्जनं
स्वपरविग्रहवैरमैत्रं
हन्तेति
पारचर पीपृहि मूढमद्य ||४१||
वैकुण्ठनाथ
! मेरे मनकी बड़ी दुर्दशा है। वह पाप-वासनाओंसे तो कलुषित है ही, स्वयं भी अत्यन्त दुष्ट है। वह प्राय: ही कामनाओंके कारण आतुर रहता है और
हर्ष-शोक, भय एवं लोक-परलोक, धन,
पत्नी, पुत्र आदिकी चिन्ताओंसे व्याकुल रहता
है। इसे आपकी लीला- कथाओंमें तो रस ही नहीं मिलता। इसके मारे मैं दीन हो रहा हूँ।
ऐसे मनसे मैं आपके स्वरूपका चिन्तन कैसे करूँ ? ॥ ३९ ॥
अच्युत ! यह कभी न अघानेवाली जीभ मुझे स्वादिष्ट रसोंकी ओर खींचती रहती है।
जननेन्द्रिय सुन्दरी स्त्रीकी ओर, त्वचा सुकोमल स्पर्शकी ओर,
पेट भोजनकी ओर, कान मधुर सङ्गीतकी ओर, नासिका भीनी-भीनी सुगन्धकी ओर और ये चपल नेत्र सौन्दर्यकी ओर मुझे खींचते
रहते हैं। इनके सिवा कर्मेन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषयोंकी ओर ले जानेको जोर लगाती
ही रहती हैं। मेरी तो वह दशा हो रही है, जैसे किसी पुरुषकी
बहुत-सी पत्नियाँ उसे अपने- अपने शयनगृहमें ले जानेके लिये चारों ओरसे घसीट रही
हों ॥ ४० ॥ इस प्रकार यह जीव अपने कर्मोंके बन्धनमें पडक़र इस संसाररूप वैतरणी
नदीमें गिरा हुआ है। जन्मसे मृत्यु, मृत्युसे जन्म और
दोनोंके द्वारा कर्मभोग करते-करते यह भयभीत हो गया है। यह अपना है, यह पराया है—इस प्रकारके भेद-भावसे युक्त होकर
किसीसे मित्रता करता है तो किसीसे शत्रुता। आप इस मूढ़ जीव-जातिकी यह दुर्दशा
देखकर करुणासे द्रवित हो जाइये। इस भव-नदीसे सर्वदा पार रहनेवाले भगवन् ! इन
प्राणियोंको भी अब पार लगा दीजिये ॥ ४१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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