॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
प्रह्लादजी
के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा
श्रीनारद
उवाच
भक्तियोगस्य
तत्सर्वमन्तरायतयार्भकः
मन्यमानो
हृषीकेशं स्मयमान उवाच ह ॥ १ ॥
श्रीप्रह्लाद
उवाच
मा
मां प्रलोभयोत्पत्त्या सक्तंकामेषु तैर्वरैः
तत्सङ्गभीतो
निर्विण्णो मुमुक्षुस्त्वामुपाश्रितः ॥ २ ॥
भृत्यलक्षणजिज्ञासुर्भक्तं
कामेष्वचोदयत्
भवान्संसारबीजेषु
हृदयग्रन्थिषु प्रभो ॥ ३ ॥
नान्यथा
तेऽखिलगुरो घटेत करुणात्मनः
यस्त
आशिष आशास्ते न स भृत्यः स वै वणिक् ॥ ४ ॥
आशासानो
न वै भृत्यः स्वामिन्याशिष आत्मनः
न
स्वामी भृत्यतः स्वाम्यमिच्छन्यो राति चाशिषः ॥ ५ ॥
अहं
त्वकामस्त्वद्भक्तस्त्वं च स्वाम्यनपाश्रयः
नान्यथेहावयोरर्थो
राजसेवकयोरिव ॥ ६ ॥
यदि
दास्यसि मे कामान्वरांस्त्वं वरदर्षभ
कामानां
हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम् ॥ ७ ॥
इन्द्रि
याणि मनः प्राण आत्मा धर्मो धृतिर्मतिः
ह्रीः
श्रीस्तेजः स्मृतिः सत्यं यस्य नश्यन्ति जन्मना ॥ ८ ॥
विमुञ्चति
यदा कामान्मानवो मनसि स्थितान्
तर्ह्येव
पुण्डरीकाक्ष भगवत्त्वाय कल्पते ॥ ९ ॥
ॐ
नमो भगवते तुभ्यं पुरुषाय महात्मने
हरयेऽद्भुतसिंहाय
ब्रह्मणे परमात्मने ॥ १० ॥
नारदजी
कहते हैं—प्रह्लादजीने बालक होनेपर भी यही समझा कि वरदान माँगना प्रेम-भक्ति का
विघ्न है; इसलिये कुछ मुसकराते हुए वे भगवान् से बोले ॥ १ ॥
प्रह्लादजीने
कहा—प्रभो ! मैं जन्म से ही विषय-भोगों में आसक्त हूँ, अब
मुझे इन वरों के द्वारा आप लुभाइये नहीं । मैं उन भोगों के सङ्ग से डरकर, उनके द्वारा होने वाली तीव्र वेदना का अनुभव कर उनसे छूटने की अभिलाषा से
ही आपकी शरणमें आया हूँ ॥ २ ॥ भगवन् ! मुझ में भक्त के लक्षण हैं या नहीं—यह जाननेके लिये आपने अपने भक्तको वरदान माँगने की ओर प्रेरित किया है। ये
विषय-भोग हृदयकी गाँठको और भी मजबूत करनेवाले तथा बार-बार जन्म-मृत्युके चक्कर में
डालनेवाले हैं ॥ ३ ॥ जगद्गुरो ! परीक्षा के सिवा ऐसा कहनेका और कोई कारण नहीं
दीखता; क्योंकि आप परम दयालु हैं। (अपने भक्तको भोगोंमें
फँसानेवाला वर कैसे दे सकते हैं ?) आपसे जो सेवक अपनी
कामनाएँ पूर्ण करना चाहता है, वह सेवक नहीं; वह तो लेन-देन करनेवाला निरा बनिया है ॥ ४ ॥ जो स्वामीसे अपनी कामनाओंकी
पूर्ति चाहता है, वह सेवक नहीं; और जो
सेवकसे सेवा करानेके लिये, उसका स्वामी बननेके लिये, उसकी कामनाएँ पूर्ण करता है, वह स्वामी नहीं ॥ ५ ॥
मैं आपका निष्काम सेवक हूँ और आप मेरे निरपेक्ष स्वामी हैं। जैसे राजा और उसके
सेवकोंका प्रयोजनवश स्वामी-सेवकका सम्बन्ध रहता है, वैसा तो
मेरा और आपका सम्बन्ध है नहीं ॥ ६ ॥ मेरे वरदानिशिरोमणि स्वामी ! यदि आप मुझे
मुँहमाँगा वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि मेरे हृदयमें कभी किसी कामनाका
बीज अङ्कुरित ही न हो ॥ ७ ॥ हृदयमें किसी भी कामनाके उदय होते ही इन्द्रिय,
मन, प्राण, देह, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, श्री, तेज, स्मृति और सत्य— ये सब-के-सब नष्ट हो जाते हैं ॥ ८ ॥
कमलनयन ! जिस समय मनुष्य अपने मनमें रहनेवाली कामनाओंका परित्याग कर देता है,
उसी समय वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेता है ॥ ९ ॥ भगवन् ! आपको
नमस्कार है। आप सबके हृदयमें विराजमान, उदारशिरोमणि स्वयं
परब्रह्म परमात्मा हैं। अद्भुत नृसिंहरूपधारी श्रीहरिके चरणोंमें मैं बार-बार
प्रणाम करता हूँ ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें