॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – नवाँ
अध्याय..(पोस्ट१८)
प्रह्लादजी
के द्वारा नृसिंहभगवान् की स्तुति
श्रीनारद
उवाच
एतावद्वर्णितगुणो
भक्त्या भक्तेन निर्गुणः
प्रह्रादं
प्रणतं प्रीतो यतमन्युरभाषत ||५१||
श्रीभगवानुवाच
प्रह्लाद
भद्र भद्रं ते प्रीतोऽहं तेऽसुरोत्तम
वरं
वृणीष्वाभिमतं कामपूरोऽस्म्यहं नृणाम् ||५२||
मामप्रीणत
आयुष्मन्दर्शनं दुर्लभं हि मे
दृष्ट्वा
मां न पुनर्जन्तुरात्मानं तप्तुमर्हति ||५३||
प्रीणन्ति
ह्यथ मां धीराः सर्वभावेन साधवः
श्रेयस्कामा
महाभाग सर्वासामाशिषां पतिम् ||५४||
एवं
प्रलोभ्यमानोऽपि वरैर्लोकप्रलोभनैः
एकान्तित्वाद्भगवति
नैच्छत्तानसुरोत्तमः ||५५||
नारदजी
कहते हैं—इस प्रकार भक्त प्रह्लादने बड़े प्रेमसे प्रकृति और प्राकृत गुणोंसे रहित
भगवान्के स्वरूपभूत गुणोंका वर्णन किया। इसके बाद वे भगवान्के चरणोंमें सिर
झुकाकर चुप हो गये। नृसिंहभगवान्का क्रोध शान्त हो गया और वे बड़े प्रेम तथा
प्रसन्नतासे बोले ॥ ५१ ॥
श्रीनृसिंहभगवान्ने
कहा—परम कल्याणस्वरूप प्रह्लाद ! तुम्हारा कल्याण हो। दैत्यश्रेष्ठ ! मैं
तुमपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे
माँग लो। मैं जीवोंकी इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला हूँ ॥ ५२ ॥ आयुष्मन् ! जो मुझे
प्रसन्न नहीं कर लेता, उसे मेरा दर्शन मिलना बहुत ही कठिन
है। परंतु जब मेरे दर्शन हो जाते हैं, तब फिर प्राणीके
हृदयमें किसी प्रकारकी जलन नहीं रह जाती ॥ ५३ ॥ मैं समस्त मनोरथोंको पूर्ण
करनेवाला हूँ। इसलिये सभी कल्याणकामी परम भाग्यवान् साधुजन जितेन्द्रिय होकर अपनी
समस्त वृत्तियोंसे मुझे प्रसन्न करनेका ही यत्न करते हैं ॥ ५४ ॥
असुरकुलभूषण
प्रह्लाद जी भगवान् के अनन्य प्रेमी थे। इसलिये बड़े-बड़े लोगों को प्रलोभन में
डालनेवाले वरों के द्वारा प्रलोभित किये जाने पर भी उन्होंने उनकी इच्छा नहीं की ॥
५५ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते
भगवत्स्तवो नाम नवमोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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