॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – नवाँ
अध्याय..(पोस्ट१७)
प्रह्लादजी
के द्वारा नृसिंहभगवान् की स्तुति
नैते
गुणा न गुणिनो महदादयो ये
सर्वे
मनः प्रभृतयः सहदेवमर्त्याः
आद्यन्तवन्त
उरुगाय विदन्ति हि त्वाम्
एवं
विमृश्य सुधियो विरमन्ति शब्दात् ||४९||
तत्तेऽर्हत्तम
नमः स्तुतिकर्मपूजाः
कर्म
स्मृतिश्चरणयोः श्रवणं कथायाम्
संसेवया
त्वयि विनेति षडङ्गया किं
भक्तिं
जनः परमहंसगतौ लभेत ||५०||
समग्र
कीर्तिके आश्रय भगवन् ! ये सत्त्वादि गुण और इन गुणोंके परिणाम महत्तत्त्वादि, देवता, मनुष्य एवं मन आदि कोई भी आपका स्वरूप
जाननेमें समर्थ नहीं है; क्योंकि ये सब आदि-अन्तवाले हैं और
आप अनादि एवं अनन्त हैं। ऐसा विचार करके ज्ञानीजन शब्दोंकी मायासे उपरत हो जाते
हैं ॥ ४९ ॥ परम पूज्य ! आपकी सेवाके छ: अङ्ग हैं—नमस्कार,
स्तुति, समस्त कर्मोंका समर्पण, सेवा-पूजा, चरणकमलोंका चिन्तन और लीला-कथाका श्रवण।
इस षडङ्ग-सेवा के बिना आप के चरण कमलों की भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है ?
और भक्ति के बिना आपकी प्राप्ति कैसे होगी ? प्रभो
! आप तो अपने परम प्रिय भक्तजनों के, परमहंसों के ही सर्वस्व
हैं ॥ ५० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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