॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – नवाँ
अध्याय..(पोस्ट१६)
प्रह्लादजी
के द्वारा नृसिंहभगवान् की स्तुति
मौनव्रतश्रुततपोऽध्ययनस्वधर्म
व्याख्यारहोजपसमाधय
आपवर्ग्याः
प्रायः
परं पुरुष ते त्वजितेन्द्रियाणां
वार्ता
भवन्त्युत न वात्र तु दाम्भिकानाम् ||४६||
रूपे
इमे सदसती तव वेदसृष्टे
बीजाङ्कुराविव
न चान्यदरूपकस्य
युक्ताः
समक्षमुभयत्र विचक्षन्ते त्वां
योगेन
वह्निमिव दारुषु नान्यतः स्यात् ||४७||
त्वं
वायुरग्निरवनिर्वियदम्बु मात्राः
प्राणेन्द्रि
याणि हृदयं चिदनुग्रहश्च
सर्वं
त्वमेव सगुणो विगुणश्च भूमन्
नान्यत्त्वदस्त्यपि
मनोवचसा निरुक्तम् ||४८||
पुरुषोत्तम
! मोक्षके दस साधन प्रसिद्ध हैं—मौन, ब्रह्मचर्य,
शास्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय,
स्वधर्मपालन, युक्तियोंसे शास्त्रोंकी व्याख्या,
एकान्तसेवन, जप और समाधि। परंतु जिनकी
इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं, उनके लिये ये सब जीविकाके साधन—व्यापारमात्र रह जाते हैं। और दम्भियोंके लिये तो जबतक उनकी पोल खुलती
नहीं, तभीतक ये जीवननिर्वाहके साधन रहते हैं और भंडाफोड़ हो
जानेपर वह भी नहीं ॥ ४६ ॥ वेदोंने बीज और अङ्कुरके समान आपके दो रूप बताये हैं—कार्य और कारण। वास्तवमें आप प्राकृत रूपसे रहित हैं। परंतु इन कार्य और
कारणरूपोंको छोडक़र आपके ज्ञानका कोई और साधन भी नहीं है। काष्ठमन्थनके द्वारा जिस
प्रकार अग्रि प्रकट की जाती है, उसी प्रकार योगीजन भक्तियोगकी
साधनासे आपको कार्य और कारण दोनोंमें ही ढूँढ़ निकालते हैं। क्योंकि वास्तवमें ये
दोनों आपसे पृथक् नहीं हैं, आपके स्वरूप ही हैं ॥ ४७ ॥ अनन्त
प्रभो ! वायु, अग्रि, पृथ्वी, आकाश, जल, पञ्च तन्मात्राएँ,
प्राण, इन्द्रिय, मन,
चित्त, अहंकार, सम्पूर्ण
जगत् एवं सगुण और निर्गुण—सब कुछ केवल आप ही हैं। और तो क्या,मन और वाणीके द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है,वह
सब आपसे पृथक् नहीं है ॥४८॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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