॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – नवाँ
अध्याय..(पोस्ट१५)
प्रह्लादजी
के द्वारा नृसिंहभगवान् की स्तुति
प्रायेण
देव मुनयः स्वविमुक्तिकामा
मौनं
चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः
नैतान्विहाय
कृपणान्विमुमुक्ष एको
नान्यं
त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये ||४४||
यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं
हि तुच्छं
कण्डूयनेन
करयोरिव दुःखदुःखम्
तृप्यन्ति
नेह कृपणा बहुदुःखभाजः
कण्डूतिवन्मनसिजं
विषहेत धीरः ||४५||
मेरे
स्वामी ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तो प्राय: अपनी मुक्तिके लिये निर्जन वनमें जाकर मौनव्रत
धारण कर लेते हैं। वे दूसरोंकी भलाईके लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते। परंतु
मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है। मैं इन भूले हुए असहाय गरीबोंको छोडक़र अकेला
मुक्त होना नहीं चाहता। और इन भटकते हुए प्राणियोंके लिये आपके सिवा और कोई सहारा
भी नहीं दिखायी पड़ता ॥ ४४ ॥ घर में फँसे हुए लोगों को जो मैथुन आदि का सुख मिलता
है,
वह अत्यन्त तुच्छ एवं दु:खरूप ही है—जैसे कोई
दोनों हाथों से खुजला रहा हो तो उस खुजली में पहले उसे कुछ थोड़ा-सा सुख मालूम
पड़ता है, परंतु पीछेसे दु:ख-ही-दु:ख होता है। किन्तु ये
भूले हुए अज्ञानी मनुष्य बहुत दु:ख भोगनेपर भी इन विषयोंसे अघाते नहीं। इसके
विपरीत धीर पुरुष जैसे खुजलाहटको सह लेते हैं, वैसे ही
कामादि वेगोंको भी सह लेते हैं। सहनेसे ही उनका नाश होता है ॥ ४५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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