रविवार, 28 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

प्रह्लादजी के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा

श्रीप्रह्लाद उवाच
वरं वरय एतत्ते वरदेशान्महेश्वर
यदनिन्दत्पिता मे त्वामविद्वांस्तेज ऐश्वरम् ॥ १५ ॥
विद्धामर्षाशयः साक्षात्सर्वलोकगुरुं प्रभुम्
भ्रातृहेति मृषादृष्टिस्त्वद्भक्ते मयि चाघवान् ॥ १६ ॥
तस्मात्पिता मे पूयेत दुरन्ताद्दुस्तरादघात्
पूतस्तेऽपाङ्गसंदृष्टस्तदा कृपणवत्सल ॥ १७ ॥

श्रीभगवानुवाच
त्रिःसप्तभिः पिता पूतः पितृभिः सह तेऽनघ
यत्साधोऽस्य कुले जातो भवान्वै कुलपावनः ॥ १८ ॥
यत्र यत्र च मद्भक्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः
साधवः समुदाचारास्ते पूयन्तेऽपि कीकटाः ॥ १९ ॥
सर्वात्मना न हिंसन्ति भूतग्रामेषु किञ्चन
उच्चावचेषु दैत्येन्द्र मद्भावविगतस्पृहाः ॥ २० ॥
भवन्ति पुरुषा लोके मद्भक्तास्त्वामनुव्रताः
भवान्मे खलु भक्तानां सर्वेषां प्रतिरूपधृक् ॥ २१ ॥
कुरु त्वं प्रेतकृत्यानि पितुः पूतस्य सर्वशः
मदङ्गस्पर्शनेनाङ्ग लोकान्यास्यति सुप्रजाः ॥ २२ ॥
पित्र्यं च स्थानमातिष्ठ यथोक्तं ब्रह्मवादिभिः
मय्यावेश्य मनस्तात कुरु कर्माणि मत्परः ॥ २३ ॥

प्रह्लादजीने कहामहेश्वर ! आप वर देनेवालोंके स्वामी हैं। आपसे मैं एक वर और माँगता हूँ। मेरे पिताने आपके ईश्वरीय तेजको और सर्वशक्तिमान् चराचरगुरु स्वयं आपको न जानकर आपकी बड़ी निन्दा की है। इस विष्णुने मेरे भाईको मार डाला हैऐसी मिथ्या दृष्टि रखनेके कारण पिताजी क्रोधके वेगको सहन करनेमें असमर्थ हो गये थे। इसीसे उन्होंने आपका भक्त होनेके कारण मुझसे भी द्रोह किया ॥ १५-१६ ॥ दीनबन्धो ! यद्यपि आपकी दृष्टि पड़ते ही वे पवित्र हो चुके, फिर भी मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि उस जल्दी नाश न होनेवाले दुस्तर दोषसे मेरे पिता शुद्ध हो जायँ ॥ १७ ॥
श्रीनृसिंहभगवान्‌ने कहानिष्पाप प्रह्लाद ! तुम्हारे पिता स्वयं पवित्र होकर तर गये, इसकी तो बात ही क्या है, यदि उनकी इक्कीस पीढिय़ोंके पितर होते तो उन सबके साथ भी वे तर जाते। क्योंकि तुम्हारे-जैसा कुलको पवित्र करनेवाला पुत्र उनको प्राप्त हुआ ॥ १८ ॥ मेरे शान्त, समदर्शी और सुखसे सदाचार पालन करनेवाले प्रेमी भक्तजन जहाँ-जहाँ निवास करते हैं, वे स्थान चाहे कीकट ही क्यों न हों, पवित्र हो जाते हैं ॥ १९ ॥ दैत्यराज ! मेरे भक्तिभावसे जिनकी कामनाएँ नष्ट हो गयी हैं, वे सर्वत्र आत्मभाव हो जानेके कारण छोटे-बड़े किसी भी प्राणीको किसी भी प्रकारसे कष्ट नहीं पहुँचाते ॥ २० ॥ संसारमें जो लोग तुम्हारे अनुयायी होंगे, वे भी मेरे भक्त हो जायँगे। बेटा ! तुम मेरे सभी भक्तोंके आदर्श हो ॥ २१ ॥ यद्यपि मेरे अङ्गोंका स्पर्श होनेसे तुम्हारे पिता पूर्णरूपसे पवित्र हो गये हैं, तथापि तुम उनकी अन्त्येष्टि-क्रिया करो। तुम्हारे-जैसी सन्तानके कारण उन्हें उत्तम लोकोंकी प्राप्ति होगी ॥ २२ ॥ वत्स ! तुम अपने पिताके पदपर स्थित हो जाओ और वेदवादी मुनियोंकी आज्ञाके अनुसार मुझमें अपना मन लगाकर और मेरी शरणमें रहकर मेरी सेवाके लिये ही अपने सारे कार्य करो ॥ २३ ॥


शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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