॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट११)
नृसिंहभगवान्
का प्रादुर्भाव,
हिरण्यकशिपु का वध
एवं
ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति
श्रीऋषय
ऊचुः
त्वं
नस्तपः परममात्थ यदात्मतेजो
येनेदमादिपुरुषात्मगतं
ससर्क्थ
तद्विप्रलुप्तममुनाद्य
शरण्यपाल
रक्षागृहीतवपुषा
पुनरन्वमंस्थाः ||४३||
श्रीपितर
ऊचुः
श्राद्धानि
नोऽधिबुभुजे प्रसभं तनूजैर्
दत्तानि
तीर्थसमयेऽप्यपिबत्तिलाम्बु
तस्योदरान्नखविदीर्णवपाद्य
आर्च्छत्
तस्मै
नमो नृहरयेऽखिलधर्मगोप्त्रे ||४४||
ऋषियोंने
कहा—पुरुषोत्तम ! आपने तपस्याके द्वारा ही अपनेमें लीन हुए जगत् की फिर से
रचना की थी और कृपा करके उसी आत्मतेज:स्वरूप श्रेष्ठ तपस्याका उपदेश आपने हमारे
लिये भी किया था। इस दैत्यने उसी तपस्याका उच्छेद कर दिया था। शरणागतवत्सल ! उस
तपस्याकी रक्षाके लिये अवतार ग्रहण करके आपने हमारे लिये फिरसे उसी उपदेशका
अनुमोदन किया है ॥ ४३ ॥
पितरोंने
कहा—प्रभो ! हमारे पुत्र हमारे लिये पिण्डदान करते थे, यह
उन्हें बलात् छीनकर खा जाया करता था। जब वे पवित्र तीर्थमें या संक्रान्ति आदिके
अवसरपर नैमित्तिक तर्पण करते या तिलाञ्जलि देते, तब उसे भी
यह पी जाता। आज आपने अपने नखोंसे उसका पेट फाडक़र वह सब-का-सब लौटाकर मानो हमें दे
दिया। आप समस्त धर्मोंके एकमात्र रक्षक हैं। नृसिंहदेव ! हम आपको नमस्कार करते हैं
॥ ४४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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