॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट१२)
नृसिंहभगवान्
का प्रादुर्भाव,
हिरण्यकशिपु का वध
एवं
ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति
श्रीसिद्धा
ऊचुः
यो
नो गतिं योगसिद्धामसाधु-
रहारषीद्योगतपोबलेन
नाना
दर्पं तं नखैर्विददार
तस्मै
तुभ्यं प्रणताः स्मो नृसिंह ||४५||
श्रीविद्याधरा
ऊचुः
विद्यां
पृथग्धारणयानुराद्धां
न्यषेधदज्ञो
बलवीर्यदृप्तः
स
येन सङ्ख्ये पशुवद्धतस्तं
मायानृसिंहं
प्रणताः स्म नित्यम् ||४६||
सिद्धोंने
कहा—नृसिंहदेव ! इस दुष्टने अपने योग और तपस्याके बलसे हमारी योगसिद्ध गति छीन
ली थी। अपने नखोंसे आपने उस घमंडीको फाड़ डाला है। हम आपके चरणोंमें विनीत भावसे
नमस्कार करते हैं ॥ ४५ ॥
विद्याधरोंने
कहा—यह मूर्ख हिरण्यकशिपु अपने बल और वीरताके घमंडमें चूर था। यहाँतक कि
हमलोगोंने विविध धारणाओंसे जो विद्या प्राप्त की थी, उसे इसने
व्यर्थ कर दिया था। आपने युद्धमें यज्ञपशुकी तरह इसको नष्ट कर दिया। अपनी लीलासे
नृसिंह बने हुए आपको हम नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं ॥ ४६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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