॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट१३)
नृसिंहभगवान्
का प्रादुर्भाव,
हिरण्यकशिपु का वध
एवं
ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति
श्रीनागा
ऊचुः
येन
पापेन रत्नानि स्त्रीरत्नानि हृतानि नः
तद्वक्षःपाटनेनासां
दत्तानन्द नमोऽस्तु ते ||४७||
श्रीमनव
ऊचुः
मनवो
वयं तव निदेशकारिणो
दितिजेन
देव परिभूतसेतवः
भवता
खलः स उपसंहृतः प्रभो
करवाम
ते किमनुशाधि किङ्करान् ||४८||
श्रीप्रजापतय
ऊचुः
प्रजेशा
वयं ते परेशाभिसृष्टा
न
येन प्रजा वै सृजामो निषिद्धाः
स
एष त्वया भिन्नवक्षा नु शेते
जगन्मङ्गलं
सत्त्वमूर्तेऽवतारः ||४९||
नागोंने
कहा—इस पापीने हमारी मणियों और हमारी श्रेष्ठ और सुन्दर स्त्रियोंको भी छीन
लिया था। आज उसकी छाती फाडक़र आपने हमारी पत्नियोंको बड़ा आनन्द दिया है। प्रभो !
हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ४७ ॥
मनुओंने
कहा—देवाधिदेव ! हम आपके आज्ञाकारी मनु हैं। इस दैत्यने हमलोगोंकी धर्ममर्यादा
भंग कर दी थी। आपने उस दुष्टको मारकर बड़ा उपकार किया है। प्रभो ! हम आपके सेवक
हैं। आज्ञा कीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें ? ॥ ४८ ॥
प्रजापतियोंने
कहा—परमेश्वर ! आपने हमें प्रजापति बनाया था। परंतु इसके रोक देनेसे हम
प्रजाकी सृष्टि नहीं कर पाते थे। आपने इसकी छाती फाड़ डाली और यह जमीनपर सर्वदाके
लिये सो गया। सत्त्वमय मूर्ति धारण करनेवाले प्रभो ! आपका यह अवतार संसारके
कल्याणके लिये है ॥ ४९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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