॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट१४)
नृसिंहभगवान्
का प्रादुर्भाव,
हिरण्यकशिपु का वध
एवं
ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति
श्रीगन्धर्वा
ऊचुः
वयं
विभो ते नटनाट्यगायका
येनात्मसाद्वीर्यबलौजसा
कृताः
स
एष नीतो भवता दशामिमां
किमुत्पथस्थः
कुशलाय कल्पते ||५०||
श्रीचारणा
ऊचुः
हरे
तवाङ्घ्रिपङ्कजं भवापवर्गमाश्रिताः
यदेष
साधुहृच्छयस्त्वयासुरः समापितः ||५१||
श्रीयक्षा
ऊचुः
वयमनुचरमुख्याः
कर्मभिस्ते मनोज्ञै-
स्त
इह दितिसुतेन प्रापिता वाहकत्वम्
स
तु जनपरितापं तत्कृतं जानता ते
नरहर
उपनीतः पञ्चतां पञ्चविंश ||५२||
गन्धर्वों
ने कहा—प्रभो ! हम आपके नाचने वाले, अभिनय करने वाले और
संगीत सुनाने वाले सेवक हैं । इस दैत्य ने अपने बल, वीर्य और
पराक्रम से हमें अपना गुलाम बना रखा था । उसे आपने इस दशा को पहुँचा दिया। सच है,
कुमार्ग से चलनेवाले का भी क्या कभी कल्याण हो सकता है ? ॥ ५० ॥
चारणोंने
कहा—प्रभो ! आपने सज्जनोंके हृदयको पीड़ा पहुँचानेवाले इस दुष्टको समाप्त कर
दिया। इसलिये हम आपके उन चरणकमलोंकी शरणमें हैं, जिनके
प्राप्त होते ही जन्म-मृत्युरूप संसारचक्र से छुटकारा मिल जाता है ॥ ५१ ॥
यक्षोंने
कहा—भगवन् ! अपने
श्रेष्ठ कर्मों के कारण हमलोग आपके सेवकों में प्रधान गिने जाते थे। परंतु
हिरण्यकशिपुने हमें अपनी पालकी ढोनेवाला कहार बना लिया। प्रकृतिके नियामक परमात्मा
! इसके कारण होनेवाले अपने निजजनोंके कष्ट जानकर ही आपने इसे मार डाला है ॥ ५२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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