॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०९)
प्रह्लादजी
के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा
विलोक्य
भग्नसङ्कल्पं विमनस्कं वृषध्वजम्
तदायं
भगवान्विष्णुस्तत्रोपायमकल्पयत् ॥ ६१ ॥
वत्सश्चासीत्तदा
ब्रह्मा स्वयं विष्णुरयं हि गौः
प्रविश्य
त्रिपुरं काले रसकूपामृतं पपौ ॥ ६२ ॥
तेऽसुरा
ह्यपि पश्यन्तो न न्यषेधन्विमोहिताः
तद्विज्ञाय
महायोगी रसपालानिदं जगौ ॥ ६३ ॥
स्मयन्विशोकः
शोकार्तान्स्मरन्दैवगतिं च ताम्
देवोऽसुरो
नरोऽन्यो वा नेश्वरोऽस्तीह कश्चन ॥ ६४ ॥
आत्मनोऽन्यस्य
वा दिष्टं दैवेनापोहितुं द्वयोः
अथासौ
शक्तिभिः स्वाभिः शम्भोः प्राधानिकं व्यधात् ॥ ६५ ॥
धर्मज्ञानविरक्त्यृद्धि
तपोविद्याक्रियादिभिः
रथं
सूतं ध्वजं वाहान्धनुर्वर्मशरादि यत् ॥ ६६ ॥
सन्नद्धो
रथमास्थाय शरं धनुरुपाददे
शरं
धनुषि सन्धाय मुहूर्तेऽभिजितीश्वरः ॥ ६७ ॥
ददाह
तेन दुर्भेद्या हरोऽथ त्रिपुरो नृप
दिवि
दुन्दुभयो नेदुर्विमानशतसङ्कुलाः ॥ ६८ ॥
देवर्षिपितृसिद्धेशा
जयेति कुसुमोत्करैः
अवाकिरन्जगुर्हृष्टा
ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ ६९ ॥
एवं
दग्ध्वा पुरस्तिस्रो भगवान्पुरहा नृप
ब्रह्मादिभिः
स्तूयमानः स्वं धाम प्रत्यपद्यत ॥ ७० ॥
एवं
विधान्यस्य हरेः स्वमायया
विडम्बमानस्य
नृलोकमात्मनः
वीर्याणि
गीतान्यृषिभिर्जगद्गुरो-
र्लोकं
पुनानान्यपरं वदामि किम् ॥ ७१ ॥
इन्हीं
भगवान् श्रीकृष्णने जब देखा कि महादेवजी तो अपना संकल्प पूरा न होनेके कारण उदास
हो गये हैं,
तब उन असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिये इन्होंने एक युक्ति की ॥
६१ ॥ यही भगवान् विष्णु उस समय गौ बन गये और ब्रह्माजी बछड़ा बने। दोनों ही
मध्याह्न के समय उन तीनों पुरोंमें गये और उस सिद्धरसके कुएँका सारा अमृत पी गये ॥
६२ ॥ यद्यपि उसके रक्षक दैत्य इन दोनोंको देख रहे थे, फिर भी
भगवान्की मायासे वे इतने मोहित हो गये कि इन्हें रोक न सके। जब उपाय
जाननेवालोंमें श्रेष्ठ मयासुरको यह बात मालूम हुई, तब भगवान्की
इस लीलाका स्मरण करके उसे कोई शोक न हुआ। शोक करनेवाले अमृत रक्षकोंसे उसने कहा—‘भाई ! देवता, असुर, मनुष्य
अथवा और कोई भी प्राणी अपने, पराये अथवा दोनोंके लिये जो
प्रारब्धका विधान है, उसे मिटा नहीं सकता। जो होना था,
हो गया। शोक करके क्या करना है ?’ इसके बाद
भगवान् श्रीकृष्णने अपनी शक्तियोंके द्वारा भगवान् शङ्करके युद्धकी सामग्री
तैयार की ॥ ६३—६५ ॥ उन्होंने धर्मसे रथ, ज्ञानसे सारथि, वैराग्यसे ध्वजा, ऐश्वर्यसे घोड़े, तपस्यासे धनुष, विद्यासे कवच, क्रियासे बाण और अपनी अन्यान्य
शक्तियोंसे अन्यान्य वस्तुओंका निर्माण किया ॥ ६६ ॥ इन सामग्रियोंसे सज-धजकर
भगवान् शङ्कर रथपर सवार हुए एवं धनुष-बाण धारण किया। भगवान् शङ्करने अभिजित्
मुहूर्तमें धनुषपर बाण चढ़ाया और उन तीनों दुर्भेद्य विमानोंको भस्म कर दिया।
युधिष्ठिर ! उसी समय स्वर्गमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। सैंकड़ों विमानोंकी भीड़ लग
गयी ॥ ६७-६८ ॥ देवता, ऋषि, पितर और
सिद्धेश्वर आनन्दसे जय-जयकार करते हुए पुष्पोंकी वर्षा करने लगे। अप्सराएँ नाचने
और गाने लगीं ॥ ६९ ॥ युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन तीनों पुरोंको जलाकर भगवान्
शङ्करने ‘पुरारि’की पदवी प्राप्त की और
ब्रह्मादिकोंकी स्तुति सुनते हुए अपने धामको चले गये ॥ ७० ॥ आत्मस्वरूप जगद्गुरु
भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार अपनी मायासे जो मनुष्योंकी-सी लीलाएँ करते हैं,
ऋषिलोग उन्हीं अनेकों लोकपावन लीलाओंका गान किया करते हैं। बताओ,
अब मैं तुम्हें और क्या सुनाऊँ ॥ ७१ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे
त्रिपुरविजये नाम दशमोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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