॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
प्रह्लादजी
के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा
राजोवाच
कस्मिन्कर्मणि
देवस्य मयोऽहन्जगदीशितुः
यथा
चोपचिता कीर्तिः कृष्णेनानेन कथ्यताम् ॥ ५२ ॥
श्रीनारद
उवाच
निर्जिता
असुरा देवैर्युध्यनेनोपबृंहितैः
मायिनां
परमाचार्यं मयं शरणमाययुः ॥ ५३ ॥
स
निर्माय पुरस्तिस्रो हैमीरौप्यायसीर्विभुः
दुर्लक्ष्यापायसंयोगा
दुर्वितर्क्यपरिच्छदाः ॥ ५४ ॥
ताभिस्तेऽसुरसेनान्यो
लोकांस्त्रीन्सेश्वरान्नृप
स्मरन्तो
नाशयां चक्रुः पूर्ववैरमलक्षिताः ॥ ५५ ॥
ततस्ते
सेश्वरा लोका उपासाद्येश्वरं नताः
त्राहि
नस्तावकान्देव विनष्टांस्त्रिपुरालयैः ॥ ५६ ॥
अथानुगृह्य
भगवान्मा भैष्टेति सुरान्विभुः
शरं
धनुषि सन्धाय पुरेष्वस्त्रं व्यमुञ्चत ॥ ५७ ॥
ततोऽग्निवर्णा
इषव उत्पेतुः सूर्यमण्डलात्
यथा
मयूखसन्दोहा नादृश्यन्त पुरो यतः ॥ ५८ ॥
तैः
स्पृष्टा व्यसवः सर्वे निपेतुः स्म पुरौकसः
तानानीय
महायोगी मयः कूपरसेऽक्षिपत् ॥ ५९ ॥
सिद्धामृतरसस्पृष्टा
वज्रसारा महौजसः
उत्तस्थुर्मेघदलना
वैद्युता इव वह्नयः ॥ ६० ॥
राजा
युधिष्ठिरने पूछा—नारदजी ! मय दानव किस कार्यमें जगदीश्वर रुद्रदेवका यश नष्ट करना चाहता था
? और भगवान् श्रीकृष्णने किस प्रकार उनके यशकी रक्षा की ?
आप कृपा करके बतलाइये ॥ ५२ ॥
नारदजीने
कहा—एक बार इन्हीं भगवान् श्रीकृष्णसे शक्ति प्राप्त करके देवताओंने युद्धमें
असुरोंको जीत लिया था। उस समय सब-के-सब असुर मायावियोंके परमगुरु मय दानवकी शरणमें
गये ॥ ५३ ॥ शक्तिशाली मयासुरने सोने, चाँदी और लोहेके तीन
विमान बना दिये। वे विमान क्या थे, तीन पुर ही थे। वे इतने
विलक्षण थे कि उनका आना-जाना जान नहीं पड़ता था। उनमें अपरिमित सामग्रियाँ भरी हुई
थीं ॥ ५४ ॥ युधिष्ठिर ! दैत्यसेनापतियोंके मनमें तीनों लोक और लोकपतियोंके प्रति
वैरभाव तो था ही, अब उसकी याद करके उन तीनों विमानोंके
द्वारा वे उनमें छिपे रहकर सबका नाश करने लगे ॥ ५५ ॥ तब लोकपालोंके साथ सारी प्रजा
भगवान् शङ्करकी शरणमें गयी और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो
! त्रिपुरमें रहनेवाले असुर हमारा नाश कर रहे हैं। हम आपके हैं; अत: देवाधिदेव ! आप हमारी रक्षा कीजिये’ ॥ ५६ ॥
उनकी
प्रार्थना सुनकर भगवान् शङ्करने कृपापूर्ण शब्दोंमें कहा—‘डरो मत।’ फिर उन्होंने अपने धनुषपर बाण चढ़ाकर तीनों
पुरोंपर छोड़ दिया ॥ ५७ ॥ उनके उस बाणसे सूर्यमण्डलसे निकलनेवाली किरणोंके समान
अन्य बहुत-से बाण निकले। उनमेंसे मानो आगकी लपटें निकल रही थीं। उनके कारण उन
पुरों का दीखना बंद हो गया ॥ ५८ ॥ उनके स्पर्श से सभी विमाननिवासी निष्प्राण होकर
गिर पड़े। महामायावी मय बहुत-से उपाय जानता था, वह उन
दैत्योंको उठा लाया और अपने बनाये हुए अमृतके कुएँमें डाल दिया ॥ ५९ ॥ उस सिद्ध
अमृत-रसका स्पर्श होते ही असुरोंका शरीर अत्यन्त तेजस्वी और वज्रके समान सुदृढ़ हो
गया। वे बादलोंको विदीर्ण करनेवाली बिजलीकी आगकी तरह उठ खड़े हुए ॥ ६० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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