मंगलवार, 30 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

प्रह्लादजी के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा

राजोवाच
कस्मिन्कर्मणि देवस्य मयोऽहन्जगदीशितुः
यथा चोपचिता कीर्तिः कृष्णेनानेन कथ्यताम् ॥ ५२ ॥

श्रीनारद उवाच
निर्जिता असुरा देवैर्युध्यनेनोपबृंहितैः
मायिनां परमाचार्यं मयं शरणमाययुः ॥ ५३ ॥
स निर्माय पुरस्तिस्रो हैमीरौप्यायसीर्विभुः
दुर्लक्ष्यापायसंयोगा दुर्वितर्क्यपरिच्छदाः ॥ ५४ ॥
ताभिस्तेऽसुरसेनान्यो लोकांस्त्रीन्सेश्वरान्नृप
स्मरन्तो नाशयां चक्रुः पूर्ववैरमलक्षिताः ॥ ५५ ॥
ततस्ते सेश्वरा लोका उपासाद्येश्वरं नताः
त्राहि नस्तावकान्देव विनष्टांस्त्रिपुरालयैः ॥ ५६ ॥
अथानुगृह्य भगवान्मा भैष्टेति सुरान्विभुः
शरं धनुषि सन्धाय पुरेष्वस्त्रं व्यमुञ्चत ॥ ५७ ॥
ततोऽग्निवर्णा इषव उत्पेतुः सूर्यमण्डलात्
यथा मयूखसन्दोहा नादृश्यन्त पुरो यतः ॥ ५८ ॥
तैः स्पृष्टा व्यसवः सर्वे निपेतुः स्म पुरौकसः
तानानीय महायोगी मयः कूपरसेऽक्षिपत् ॥ ५९ ॥
सिद्धामृतरसस्पृष्टा वज्रसारा महौजसः
उत्तस्थुर्मेघदलना वैद्युता इव वह्नयः ॥ ६० ॥

राजा युधिष्ठिरने पूछानारदजी ! मय दानव किस कार्यमें जगदीश्वर रुद्रदेवका यश नष्ट करना चाहता था ? और भगवान्‌ श्रीकृष्णने किस प्रकार उनके यशकी रक्षा की ? आप कृपा करके बतलाइये ॥ ५२ ॥
नारदजीने कहाएक बार इन्हीं भगवान्‌ श्रीकृष्णसे शक्ति प्राप्त करके देवताओंने युद्धमें असुरोंको जीत लिया था। उस समय सब-के-सब असुर मायावियोंके परमगुरु मय दानवकी शरणमें गये ॥ ५३ ॥ शक्तिशाली मयासुरने सोने, चाँदी और लोहेके तीन विमान बना दिये। वे विमान क्या थे, तीन पुर ही थे। वे इतने विलक्षण थे कि उनका आना-जाना जान नहीं पड़ता था। उनमें अपरिमित सामग्रियाँ भरी हुई थीं ॥ ५४ ॥ युधिष्ठिर ! दैत्यसेनापतियोंके मनमें तीनों लोक और लोकपतियोंके प्रति वैरभाव तो था ही, अब उसकी याद करके उन तीनों विमानोंके द्वारा वे उनमें छिपे रहकर सबका नाश करने लगे ॥ ५५ ॥ तब लोकपालोंके साथ सारी प्रजा भगवान्‌ शङ्करकी शरणमें गयी और उनसे प्रार्थना की कि प्रभो ! त्रिपुरमें रहनेवाले असुर हमारा नाश कर रहे हैं। हम आपके हैं; अत: देवाधिदेव ! आप हमारी रक्षा कीजिये॥ ५६ ॥
उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ शङ्करने कृपापूर्ण शब्दोंमें कहा—‘डरो मत।फिर उन्होंने अपने धनुषपर बाण चढ़ाकर तीनों पुरोंपर छोड़ दिया ॥ ५७ ॥ उनके उस बाणसे सूर्यमण्डलसे निकलनेवाली किरणोंके समान अन्य बहुत-से बाण निकले। उनमेंसे मानो आगकी लपटें निकल रही थीं। उनके कारण उन पुरों का दीखना बंद हो गया ॥ ५८ ॥ उनके स्पर्श से सभी विमाननिवासी निष्प्राण होकर गिर पड़े। महामायावी मय बहुत-से उपाय जानता था, वह उन दैत्योंको उठा लाया और अपने बनाये हुए अमृतके कुएँमें डाल दिया ॥ ५९ ॥ उस सिद्ध अमृत-रसका स्पर्श होते ही असुरोंका शरीर अत्यन्त तेजस्वी और वज्रके समान सुदृढ़ हो गया। वे बादलोंको विदीर्ण करनेवाली बिजलीकी आगकी तरह उठ खड़े हुए ॥ ६० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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