॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
प्रह्लादजी
के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा
यूयं
नृलोके बत भूरिभागा
लोकं
पुनाना मुनयोऽभियन्ति
येषां
गृहानावसतीति साक्षाद्
गूढं
परं ब्रह्म मनुष्यलिङ्गम् ॥ ४८ ॥
स
वा अयं ब्रह्म महद्विमृग्य
कैवल्यनिर्वाणसुखानुभूतिः
प्रियः
सुहृद्वः खलु मातुलेय
आत्मार्हणीयो
विधिकृद्गुरुश्च ॥ ४९ ॥
न
यस्य साक्षाद्भवपद्मजादिभी
रूपं
धिया वस्तुतयोपवर्णितम्
मौनेन
भक्त्योपशमेन पूजितः
प्रसीदतामेष
स सात्वतां पतिः ॥ ५० ॥
स
एष भगवान्राजन्व्यतनोद्विहतं यशः
पुरा
रुद्र स्य देवस्य मयेनानन्तमायिना ॥ ५१ ॥
युधिष्ठिर
! इस मनुष्यलोकमें तुमलोगोंके भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, क्योंकि तुम्हारे घरमें साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्यका रूप धारण
करके गुप्तरूपसे निवास करते हैं। इसीसे सारे संसारको पवित्र कर देनेवाले ऋषि-मुनि
बार-बार उनका दर्शन करनेके लिये चारों ओरसे तुम्हारे पास आया करते हैं ॥ ४८ ॥
बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूँढ़ते रहते हैं, जो
मायाके लेशसे रहित परम शान्त परमानन्दानुभवस्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं—वे ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी,
गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं ॥ ४९ ॥ शङ्कर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘वे यह हैं’—इस रूपमें उनका वर्णन नहीं कर सके। फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम तो
मौन, भक्ति और संयमके द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया
हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान् हमपर प्रसन्न हों ॥ ५० ॥ युधिष्ठिर
यही एकमात्र आराध्यदेव हैं। प्राचीन कालमें बहुत बड़े मायावी मयासुरने जब
रुद्रदेवकी कमनीय कीर्तिमें कलङ्क लगाना चाहा था, तब इन्हीं
भगवान् श्रीकृष्णने फरिसे उनके यशकी रक्षा और विस्तार किया था ॥ ५१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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