॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – आठवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
नृसिंहभगवान्
का प्रादुर्भाव,
हिरण्यकशिपु का वध
एवं
ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति
असाध्वमन्यन्त
हृतौकसोऽमरा
घनच्छदा
भारत सर्वधिष्ण्यपाः
तं
मन्यमानो निजवीर्यशङ्कितं
यद्धस्तमुक्तो
नृहरिं महासुरः
पुनस्तमासज्जत
खड्गचर्मणी
प्रगृह्य
वेगेन गतश्रमो मृधे ||२७||
तं
श्येनवेगं शतचन्द्र वर्त्मभि-
श्चरन्तमच्छिद्र
मुपर्यधो हरिः
कृत्वाट्टहासं
खरमुत्स्वनोल्बणं
निमीलिताक्षं
जगृहे महाजवः ||२८||
विष्वक्स्फुरन्तं
ग्रहणातुरं हरि-
र्व्यालो
यथाखुं कुलिशाक्षतत्वचम्
द्वार्यूरुमापत्य
ददार लीलया
नखैर्यथाहिं
गरुडो महाविषम् ||२९||
युधिष्ठिर
! उस समय सब-के-सब लोकपाल बादलोंमें छिपकर इस युद्धको देख रहे थे। उनका स्वर्ग तो
हिरण्यकशिपुने पहले ही छीन लिया था। जब उन्होंने देखा कि वह भगवान्के हाथसे छूट
गया,
तब वे और भी डर गये। हिरण्यकशिपुने भी यही समझा कि नृसिंहने मेरे
बलवीर्यसे डरकर ही मुझे अपने हाथसे छोड़ दिया है। इस विचारसे उसकी थकान जाती रही
और वह युद्धके लिये ढाल-तलवार लेकर फिर उनकी ओर दौड़ पड़ा ॥ २७ ॥ उस समय वह बाजकी
तरह बड़े वेगसे ऊपर-नीचे उछल-कूदकर इस प्रकार ढाल-तलवारके पैंतरे बदलने लगा कि
जिससे उसपर आक्रमण करनेका अवसर ही न मिले। तब भगवान्ने बड़े ऊँचे स्वरसे प्रचण्ड
और भयङ्कर अट्टहास किया, जिससे हिरण्यकशिपुकी आँखें बंद हो
गयीं। फिर बड़े वेगसे झपटकर भगवान् ने उसे वैसे ही पकड़ लिया, जैसे साँप चूहे को पकड़ लेता है। जिस हिरण्यकशिपु के चमड़े पर वज्र की चोट
से भी खरोंच नहीं आयी थी, वही अब उनके पंजेसे निकलनेके लिये
जोरसे छटपटा रहा था। भगवान् ने सभा के दरवाजे पर ले जाकर उसे अपनी जाँघों पर गिरा
लिया और खेल-खेल में अपने नखों से उसे उसी प्रकार फाड़ डाला, जैसे गरुड़ महाविषधर साँपको चीर डालते हैं ॥ २८-२९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें