सोमवार, 22 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

क्वाहं रजःप्रभव ईश तमोऽधिकेऽस्मिन्
जातः सुरेतरकुले क्व तवानुकम्पा
न ब्रह्मणो न तु भवस्य न वै रमाया
यन्मेऽर्पितः शिरसि पद्मकरः प्रसादः ||२६||
नैषा परावरमतिर्भवतो ननु स्याज्
जन्तोर्यथात्मसुहृदो जगतस्तथापि
संसेवया सुरतरोरिव ते प्रसादः
सेवानुरूपमुदयो न परावरत्वम् ||२७||
एवं जनं निपतितं प्रभवाहिकूपे
कामाभिकाममनु यः प्रपतन्प्रसङ्गात्
कृत्वात्मसात्सुरर्षिणा भगवन्गृहीतः
सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम् ||२८||
मत्प्राणरक्षणमनन्त पितुर्वधश्च
मन्ये स्वभृत्यऋषिवाक्यमृतं विधातुम्
खड्गं प्रगृह्य यदवोचदसद्विधित्सुस्
त्वामीश्वरो मदपरोऽवतु कं हरामि ||२९||

प्रभो ! कहाँ तो इस तमोगुणी असुरवंशमें रजोगुणसे उत्पन्न हुआ मैं, और कहाँ आपकी अनन्त कृपा ! धन्य है ! आपने अपना परम प्रसादस्वरूप और सकलसन्तापहारी वह करकमल मेरे सिरपर रखा है, जिसे आपने ब्रह्मा, शङ्कर और लक्ष्मीजीके सिरपर भी कभी नहीं रखा ॥ २६ ॥ दूसरे संसारी जीवोंके समान आपमें छोटे-बड़ेका भेदभाव नहीं है; क्योंकि आप सबके आत्मा और अकारण प्रेमी हैं। फिर भी कल्प-वृक्षके समान आपका कृपा-प्रसाद भी सेवन-भजनसे ही प्राप्त होता है। सेवाके अनुसार ही जीवोंपर आपकी कृपाका उदय होता है, उसमें जातिगत उच्चता या नीचता कारण नहीं है ॥ २७ ॥ भगवन् ! यह संसार एक ऐसा अँधेरा कुआँ है, जिसमें कालरूप सर्प डँसनेके लिये सदा तैयार रहता है। विषय-भोगोंकी इच्छावाले पुरुष उसीमें गिरे हुए हैं। मैं भी सङ्गवश उसके पीछे उसीमें गिरने जा रहा था। परंतु भगवन् ! देवर्षि नारदने मुझे अपनाकर बचा लिया। तब भला, मैं आपके भक्तजनोंकी सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ ॥ २८ ॥ अनन्त ! जिस समय मेरे पिताने अन्याय करनेके लिये कमर कसकर हाथमें खड्ग ले लिया और वह कहने लगा कि यदि मेरे सिवा कोई और ईश्वर है तो तुझे बचा ले, मैं तेरा सिर काटता हूँ’, उस समय आपने मेरे प्राणोंकी रक्षा की और मेरे पिताका वध किया। मैं तो समझता हूँ कि आपने अपने प्रेमी भक्त सनकादि ऋषियोंका वचन सत्य करनेके लिये ही वैसा किया था ॥ २९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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