॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – नवाँ
अध्याय..(पोस्ट१०)
प्रह्लादजी
के द्वारा नृसिंहभगवान् की स्तुति
एकस्त्वमेव
जगदेतममुष्य यत्त्वम्
आद्यन्तयोः
पृथगवस्यसि मध्यतश्च
सृष्ट्वा
गुणव्यतिकरं निजमाययेदं
नानेव
तैरवसितस्तदनुप्रविष्टः ||३०||
त्वम्वा
इदं सदसदीश भवांस्ततोऽन्यो
माया
यदात्मपरबुद्धिरियं ह्यपार्था
यद्यस्य
जन्म निधनं स्थितिरीक्षणं च
तद्वैतदेव
वसुकालवदष्टितर्वोः ||३१||
न्यस्येदमात्मनि
जगद्विलयाम्बुमध्ये
शेषेत्मना
निजसुखानुभवो निरीहः
योगेन
मीलितदृगात्मनिपीतनिद्रस्-
तुर्ये
स्थितो न तु तमो न गुणांश्च युङ्क्षे ||३२||
भगवन्
! यह सम्पूर्ण जगत् एकमात्र आप ही हैं। क्योंकि इसके आदिमें आप ही कारणरूपसे थे, अन्तमें आप ही अवधिके रूपमें रहेंगे और बीचमें इसकी प्रतीतिके रूपमें भी
केवल आप ही हैं। आप अपनी मायासे गुणोंके परिणामस्वरूप इस जगत्की सृष्टि करके इसमें
पहलेसे विद्यमान रहनेपर भी प्रवेशकी लीला करते हैं और उन गुणोंसे युक्त होकर अनेक
मालूम पड़ रहे हैं ॥ ३० ॥ भगवन् ! यह जो कुछ कार्य-कारणके रूपमें प्रतीत हो रहा है,
वह सब आप ही हैं और इससे भिन्न भी आप ही हैं। अपने-परायेका भेद-भाव
तो अर्थहीन शब्दोंकी माया है; क्योंकि जिससे जिसका जन्म,
स्थिति, लय और प्रकाश होता है, वह उसका स्वरूप ही होता है—जैसे बीज और वृक्ष कारण
और कार्यकी दृष्टिसे भिन्न-भिन्न हैं, तो भी गन्ध-तन्मात्रकी
दृष्टिसे दोनों एक ही हैं ॥ ३१ ॥
भगवन्
! आप इस सम्पूर्ण विश्वको स्वयं ही अपनेमें समेटकर आत्मसुखका अनुभव करते हुए
निष्क्रिय होकर प्रलयकालीन जलमें शयन करते हैं। उस समय अपने स्वयंसिद्ध योगके
द्वारा बाह्य दृष्टिको बंद कर आप अपने स्वरूपके प्रकाशमें निद्राको विलीन कर लेते
हैं,
और तुरीय ब्रह्मपदमें स्थित रहते हैं। उस समय आप न तो तमोगुणसे ही
युक्त होते और न तो विषयोंको ही स्वीकार करते हैं ॥ ३२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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