गुरुवार, 1 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण

संस्कारा यदविच्छिन्नाः स द्विजोऽजो जगाद यम् ।
इज्याध्ययनदानानि विहितानि द्विजन्मनाम् ।
जन्मकर्मावदातानां क्रियाश्चाश्रमचोदिताः ॥ १३ ॥
विप्रस्याध्ययनादीनि षडन्यस्याप्रतिग्रहः ।
राज्ञो वृत्तिः प्रजागोप्तुः अविप्राद् वा करादिभिः ॥ १४ ॥
वैश्यस्तु वार्तावृत्तिश्च नित्यं ब्रह्मकुलानुगः ।
शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा वृत्तिश्च स्वामिनो भवेत् ॥ १५ ॥
वार्ता विचित्रा शालीन यायावरशिलोञ्छनम् ।
विप्रवृत्तिश्चतुर्धेयं श्रेयसी चोत्तरोत्तरा ॥ १६ ॥
जघन्यो नोत्तमां वृत्तिं अनापदि भजेन्नरः ।
ऋते राजन्यमापत्सु सर्वेषामपि सर्वशः ॥ १७ ॥
ऋतां ऋताभ्यां जीवेत मृतेन प्रमृतेन वा ।
सत्यानृताभ्यां जीवेत न श्ववृत्त्या कदाचन ॥ १८ ॥
ऋतमुञ्छशिलं प्रोक्तं अमृतं यद् अयाचितम् ।
मृतं तु नित्ययांच्या स्यात् प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् ॥ १९ ॥
सत्यानृतं च वाणिज्यं श्ववृत्तिर्नीचसेवनम् ।
वर्जयेत्तां सदा विप्रो राजन्यश्च जुगुप्सिताम् ।
सर्ववेदमयो विप्रः सर्वदेवमयो नृपः ॥ २० ॥

धर्मराज ! जिनके वंशमें अखण्डरूप से संस्कार होते आये हैं और जिन्हें ब्रह्माजी ने संस्कार के योग्य स्वीकार किया है, उन्हें द्विज कहते हैं। जन्म और कर्म से शुद्ध द्विजोंके लिये यज्ञ, अध्ययन, दान और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के विशेष कर्मों का विधान है ॥ १३ ॥ अध्ययन, अध्यापन, दान लेना, दान देना और यज्ञ करना, यज्ञ करानाये छ: कर्म ब्राह्मणके हैं। क्षत्रियको दान नहीं लेना चाहिये। प्रजाकी रक्षा करनेवाले क्षत्रियका जीवन-निर्वाह ब्राह्मणके सिवा और सबसे यथायोग्य कर तथा दण्ड (जुर्माना) आदिके द्वारा होता है ॥ १४ ॥ वैश्यको सर्वदा ब्राह्मण वंशका अनुयायी रहकर गोरक्षा, कृषि एवं व्यापारके द्वारा अपनी जीविका चलानी चाहिये। शूद्रका धर्म है द्विजातियोंकी सेवा। उसकी जीविका का निर्वाह उसका स्वामी करता है ॥ १५ ॥
ब्राह्मणके जीवन-निर्वाहके साधन चार प्रकार के हैं१-वार्ता (यज्ञादि कराकर धन लेना), २-शालीन (बिना मांगे जो कुछ मिल जाए उसीमें निर्वाह करना), ३-यायावर(नित्यप्रति धान्यादि मांग लाना) और ४-शिलोञ्छन [*] । इनमेंसे पीछे-पीछेकी वृत्तियाँ अपेक्षाकृत श्रेष्ठ हैं ॥ १६ ॥ निम्नवर्ण का पुरुष बिना आपत्तिकाल के उत्तम वर्णकी वृत्तियोंका अवलम्बन न करे। क्षत्रिय दान लेना छोडक़र ब्राह्मणकी शेष पाँचों वृत्तियोंका अवलम्बन ले सकता है। आपत्तिकालमें सभी सब वृत्तियोंको स्वीकार कर सकते हैं ॥ १७ ॥
ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृतइनमेंसे किसी भी वृत्तिका आश्रय ले, परंतु श्वानवृत्ति का अवलम्बन कभी न करे ॥ १८ ॥ बाजारमें पड़े हुए अन्न (उञ्छ) तथा खेतोंमें पड़े हुए अन्न (शिल) को बीनकर शिलोञ्छवृत्तिसे जीविका-निर्वाह करना ऋतहै। बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, उसी अयाचित (शालीन) वृत्तिके द्वारा जीवन-निर्वाह करना अमृतहै। नित्य माँगकर लाना अर्थात् ययावरवृत्तिके द्वारा जीवन-यापन करना मृतहै। कृषि आदिके द्वारा वार्तावृत्तिसे जीवन-निर्वाह करना प्रमृतहै ॥ १९ ॥ वाणिज्य सत्यानृतहै और निम्नवर्णकी सेवा करना श्वानवृत्ति है। ब्राह्मण और क्षत्रियको इस अन्तिम निन्दित वृत्तिका कभी आश्रय नहीं लेना चाहिये। क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय और क्षत्रिय (राजा) सर्वदेवमय है ॥ २० ॥
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[*] किसानके खेत काटकर अन्न घरको ले जानेपर पृथ्वीपर जो कण पड़े रह जाते हैं, उन्हें शिलतथा बाजारमें पड़े हुए अन्नके दानों को उञ्छकहते हैं। उन शिल और उञ्छोंको बीनकर अपना निर्वाह करना शिलोञ्छनवृत्ति है।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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