शनिवार, 10 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

गृहस्थसम्बन्धी सदाचार

दिव्यं भौमं चान्तरीक्षं वित्तं अच्युतनिर्मितम् ।
तत्सर्वं उपयुञ्जान एतत्कुर्यात् स्वतो बुधः ॥ ७ ॥
यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् ।
अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ॥ ८ ॥
मृगोष्ट्रखरमर्काखु सरीसृप्खगमक्षिकाः ।
आत्मनः पुत्रवत्पश्येत् तैरेषामन्तरं कियत् ॥ ९ ॥
त्रिवर्गं नातिकृच्छ्रेण भजेत गृहमेध्यपि ।
यथादेशं यथाकालं यावद् दैवोपपादितम् ॥ १० ॥
आश्वाघान्तेऽवसायिभ्यः कामान् सविभजेद् यथा ।
अप्येकामात्मनो दारां नृणां स्वत्वग्रहो यतः ॥ ११ ॥
जह्याद्यदर्थे स्वप्राणान् हन्याद्वा पितरं गुरुम् ।
तस्यां स्वत्वं स्त्रियां जह्याद् यस्तेन ह्यजितो जितः ॥ १२ ॥
कृमिविड्भस्मनिष्ठान्तं क्वेदं तुच्छं कलेवरम् ।
क्व तदीयरतिर्भार्या क्वायमात्मा नभश्छदिः ॥ १३ ॥

बुद्धिमान् पुरुष वर्षा आदिके द्वारा होनेवाले अन्नादि, पृथ्वीसे उत्पन्न होनेवाले सुवर्ण आदि, अकस्मात् प्राप्त होनेवाले द्रव्य आदि तथा और सब प्रकारके धन भगवान्‌के ही दिये हुए हैंऐसा समझकर प्रारब्धके अनुसार उनका उपभोग करता हुआ सञ्चय न करे, उन्हें पूर्वोक्त साधुसेवा आदि कर्मोंमें लगा दे ॥ ७ ॥ मनुष्योंका अधिकार केवल उतने ही धनपर है, जितनेसे उनकी भूख मिट जाय। इससे अधिक सम्पत्तिको जो अपनी मानता है, वह चोर है, उसे दण्ड मिलना चाहिये ॥ ८ ॥ हरिन, ऊँट, गधा, बंदर, चूहा, सरीसृप (रेंगकर चलनेवाले प्राणी), पक्षी और मक्खी आदिको अपने पुत्रके समान ही समझे। उनमें और पुत्रोंमें अन्तर ही कितना है ॥ ९ ॥ गृहस्थ मनुष्योंको भी धर्म, अर्थ और कामके लिये बहुत कष्ट नहीं उठाना चाहिये; बल्कि देश, काल और प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाय, उसीसे सन्तोष करना चाहिये ॥ १० ॥ अपनी समस्त भोग-सामग्रियोंको कुत्ते, पतित और चाण्डालपर्यन्त सब प्राणियोंको यथायोग्य बाँटकर ही अपने काममें लाना चाहिये। और तो क्या, अपनी स्त्रीको भीजिसे मनुष्य समझता है कि यह मेरी हैअतिथि आदिकी निर्दोष सेवामें नियुक्त रखे ॥ ११ ॥ लोग स्त्रीके लिये अपने प्राण तक दे डालते हैं। यहाँतक कि अपने मा-बाप और गुरुको भी मार डालते हैं। उस स्त्री पर से जिसने अपनी ममता हटा ली, उसने स्वयं नित्यविजयी भगवान्‌ पर भी विजय प्राप्त कर ली ॥ १२ ॥ यह शरीर अन्तमें कीड़े, विष्ठा या राख की ढेरी होकर रहेगा। कहाँ तो यह तुच्छ शरीर और इसके लिये जिसमें आसक्ति होती है वह स्त्री, और कहाँ अपनी महिमा से आकाशको भी ढक रखनेवाला अनन्त आत्मा ! ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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