शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

गृहस्थसम्बन्धी सदाचार

युधिष्ठिर उवाच -
गृहस्थ एतां पदवीं विधिना येन चाञ्जसा ।
याति देवऋषे ब्रूहि मादृशो गृहमूढधीः ॥ १ ॥

श्रीनारद उवाच -
गृहेष्ववस्थितो राजन् क्रियाः कुर्वन्यथोचिताः ।
वासुदेवार्पणं साक्षाद् उपासीत महामुनीन् ॥ २ ॥
श्रृण्वन्भगवतोऽभीक्ष्णं अवतारकथामृतम् ।
श्रद्दधानो यथाकालं उपशान्तजनावृतः ॥ ३ ॥
सत्सङ्‌गाच्छनकैः सङ्‌गं आत्मजायात्मजादिषु ।
विमुञ्चेन् मुच्यमानेषु स्वयं स्वप्नवदुत्थितः ॥ ४ ॥
यावद् अर्थमुपासीनो देहे गेहे च पण्डितः ।
विरक्तो रक्तवत् तत्र नृलोके नरतां न्यसेत् ॥ ५ ॥
ज्ञातयः पितरौ पुत्रा भ्रातरः सुहृदोऽपरे ।
यद् वदन्ति यदिच्छन्ति चानुमोदेत निर्ममः ॥ ६ ॥

राजा युधिष्ठिरने पूछादेवर्षि नारदजी ! मेरे जैसा गृहासक्त गृहस्थ बिना विशेष परिश्रमके इस पदको किस साधनसे प्राप्त कर सकता है, आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ १ ॥
नारदजीने कहायुधिष्ठिर ! मनुष्य गृहस्थाश्रममें रहे और गृहस्थ-धर्मके अनुसार सब काम करे, परंतु उन्हें भगवान्‌के प्रति समर्पित कर दे और बड़े-बड़े संत-महात्माओंकी सेवा भी करे ॥ २ ॥ अवकाशके अनुसार विरक्त पुरुषोंमें निवास करे और बार-बार श्रद्धापूर्वक भगवान्‌के अवतारोंकी लीला-सुधाका पान करता रहे ॥ ३ ॥ जैसे स्वप्न टूट जानेपर मनुष्य स्वप्नके सम्बन्धियोंसे आसक्त नहीं रहतावैसे ही ज्यों-ज्यों सत्सङ्गके द्वारा बुद्धि शुद्ध हो, त्यों-ही-त्यों शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदिकी आसक्ति स्वयं छोड़ता चले। क्योंकि एक-न-एक दिन ये छूटनेवाले ही हैं ॥ ४ ॥ बुद्धिमान् पुरुषको आवश्यकताके अनुसार ही घर और शरीरकी सेवा करनी चाहिये, अधिक नहीं। भीतरसे विरक्त रहे और बाहरसे रागीके समान लोगोंमें साधारण मनुष्यों-जैसा ही व्यवहार कर ले ॥ ५ ॥ माता-पिता, भाई-बन्धु, पुत्र-मित्र, जातिवाले और दूसरे जो कुछ कहें अथवा जो कुछ चाहें, भीतर से ममता न रखकर उनका अनुमोदन कर दे ॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





1 टिप्पणी:

  1. नारायण नारायण नारायण नारायण
    🌹💖💐जय श्री हरि: !!🙏🙏

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