॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – तेरहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
यतिधर्मका
निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद
विकल्पं
जुहुयाच्चित्तौ तां मनस्यर्थविभ्रमे
मनो
वैकारिके हुत्वा तं मायायां जुहोत्यनु ॥ ४३ ॥
आत्मानुभूतौ
तां मायां जुहुयात्सत्यदृङ्मुनिः
ततो
निरीहो विरमेत्स्वानुभूत्यात्मनि स्थितः ॥ ४४ ॥
स्वात्मवृत्तं
मयेत्थं ते सुगुप्तमपि वर्णितम्
व्यपेतं
लोकशास्त्राभ्यां भवान्हि भगवत्परः ॥ ४५ ॥
श्रीनारद
उवाच
धर्मं
पारमहंस्यं वै मुनेः श्रुत्वासुरेश्वरः
पूजयित्वा
ततः प्रीत आमन्त्र्य प्रययौ गृहम् ॥ ४६ ॥
सत्यका
अनुसन्धान करनेवाले मनुष्यको चाहिये कि जो नाना प्रकारके पदार्थ और उनके भेद-
विभेद मालूम पड़ रहे हैं,
उनको चित्तवृत्तिमें हवन कर दे। चित्तवृत्तिको इन पदार्थोंके
सम्बन्धमें विविध भ्रम उत्पन्न करनेवाले मनमें, मनको
सात्त्विक अहंकारमें और सात्त्विक अहंकारको महत्तत्त्व के द्वारा मायामें हवन कर
दे। इस प्रकार ये सब भेद-विभेद और उनका कारण माया ही है, ऐसा
निश्चय करके फिर उस माया को आत्मानुभूति में स्वाहा कर दे। इस प्रकार आत्मसाक्षात्कार
के द्वारा आत्मस्वरूप में स्थित होकर निष्क्रिय एवं उपरत हो जाय ॥ ४३-४४ ॥
प्रह्लादजी ! मेरी यह आत्मकथा अत्यन्त गुप्त एवं लोक और शास्त्रसे परे की वस्तु
है। तुम भगवान्के अत्यन्त प्रेमी हो, इसलिये मैंने तुम्हारे
प्रति इसका वर्णन किया है ॥ ४५ ॥
नारदजी
कहते हैं—महाराज ! प्रह्लादजीने दत्तात्रेय मुनिसे परमहंसोंके इस धर्मका श्रवण करके
उनकी पूजा की और फिर उनसे विदा लेकर बड़ी प्रसन्नता से अपनी राजधानी के लिये
प्रस्थान किया ॥ ४६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे
यतिधर्मे त्रयोदशोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
💐💖🌹जय श्री हरि: !!🙏🙏
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