॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – तेरहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
यतिधर्मका
निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद
मधुकारमहासर्पौ
लोकेऽस्मिन्नो गुरूत्तमौ
वैराग्यं
परितोषं च प्राप्ता यच्छिक्षया वयम् ॥ ३४ ॥
विरागः
सर्वकामेभ्यः शिक्षितो मे मधुव्रतात्
कृच्छ्राप्तं
मधुवद्वित्तं हत्वाप्यन्यो हरेत्पतिम् ॥ ३५ ॥
अनीहः
परितुष्टात्मा यदृच्छोपनतादहम्
नो
चेच्छये बह्वहानि महाहिरिव सत्त्ववान् ॥ ३६ ॥
क्वचिदल्पं
क्वचिद्भूरि भुञ्जेऽन्नं स्वाद्वस्वादु वा
क्वचिद्भूरि
गुणोपेतं गुणहीनमुत क्वचित् ॥ ३७ ॥
श्रद्धयोपहृतं
क्वापि कदाचिन्मानवर्जितम्
भुञ्जे
भुक्त्वाथ कस्मिंश्चिद्दिवा नक्तं यदृच्छया ॥ ३८ ॥
क्षौमं
दुकूलमजिनं चीरं वल्कलमेव वा
वसेऽन्यदपि
सम्प्राप्तं दिष्टभुक्तुष्टधीरहम् ॥ ३९ ॥
क्वचिच्छये
धरोपस्थे तृणपर्णाश्मभस्मसु
क्वचित्प्रासादपर्यङ्के
कशिपौ वा परेच्छया ॥ ४० ॥
क्वचित्स्नातोऽनुलिप्ताङ्गः
सुवासाः स्रग्व्यलङ्कृतः
रथेभाश्वैश्चरे
क्वापि दिग्वासा ग्रहवद्विभो ॥ ४१ ॥
नाहं
निन्दे न च स्तौमि स्वभावविषमं जनम्
एतेषां
श्रेय आशासे उतैकात्म्यं महात्मनि ॥ ४२ ॥
(दत्तात्रेयजी
कह रहे हैं) इस लोक में मेरे सबसे बड़े गुरु हैं—अजगर और
मधुमक्खी। उनकी शिक्षासे हमें वैराग्य और सन्तोष की प्राप्ति हुई है ॥ ३४ ॥
मधुमक्खी जैसे मधु इकट्ठा करती है, वैसे ही लोग बड़े कष्टसे
धन-सञ्चय करते हैं; परंतु दूसरा ही कोई उस धन-राशिके
स्वामीको मारकर उसे छीन लेता है। इससे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की कि विषय-भोगोंसे
विरक्त ही रहना चाहिये ॥ ३५ ॥ मैं अजगरके समान निश्चेष्ट पड़ा रहता हूँ और दैववश
जो कुछ मिल जाता है, उसीमें सन्तुष्ट रहता हूँ और यदि कुछ
नहीं मिलता, तो बहुत दिनोंतक धैर्य धारण कर यों ही पड़ा रहता
हूँ ॥ ३६ ॥ कभी थोड़ा अन्न खा लेता हूँ तो कभी बहुत; कभी
स्वादिष्ट तो कभी नीरस—बेस्वाद; और कभी
अनेकों गुणोंसे युक्त, तो कभी सर्वथा गुणहीन ॥ ३७ ॥ कभी बड़ी
श्रद्धासे प्राप्त हुआ अन्न खाता हूँ तो कभी अपमानके साथ और किसी-किसी समय अपने-आप
ही मिल जानेपर कभी दिनमें, कभी रातमें और कभी एक बार भोजन
करके भी दुबारा कर लेता हूँ ॥ ३८ ॥ मैं अपने प्रारब्धके भोगमें ही सन्तुष्ट रहता
हूँ। इसलिये मुझे रेशमी या सूती, मृगचर्म या चीर, वल्कल या और कुछ—जैसा भी वस्त्र मिल जाता है,
वैसा ही पहन लेता हूँ ॥ ३९ ॥ कभी मैं पृथ्वी, घास,
पत्ते, पत्थर या राखके ढेर पर ही पड़ रहता हूँ,
तो कभी दूसरोंकी इच्छासे महलोंमें पलँगों और गद्दोंपर सो लेता हूँ ॥
४० ॥ दैत्यराज ! कभी नहा-धोकर, शरीरमें चन्दन लगाकर सुन्दर
वस्त्र, फूलोंके हार और गहने पहन रथ, हाथी
और घोड़ेपर चढक़र चलता हूँ, तो कभी पिशाचके समान बिलकुल नंग-धड़ंग
विचरता हूँ ॥ ४१ ॥ मनुष्योंके स्वभाव भिन्न-भिन्न होते ही हैं। अत: न तो मैं
किसीकी निन्दा करता हूँ और न स्तुति ही। मैं केवल इनका परम कल्याण और परमात्मासे
एकता चाहता हूँ ॥ ४२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
नारायण नारायण नारायण नारायण
जवाब देंहटाएंहरि:शरणम् हरि:शरणम् हरि: शरणम् 🌷🌿🌸🙏🙏🙏