॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – तेरहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
यतिधर्मका
निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद
सुखमस्यात्मनो
रूपं सर्वेहोपरतिस्तनुः
मनःसंस्पर्शजान्दृष्ट्वा
भोगान्स्वप्स्यामि संविशन् ॥ २६ ॥
इत्येतदात्मनः
स्वार्थं सन्तं विस्मृत्य वै पुमान्
विचित्रामसति
द्वैते घोरामाप्नोति संसृतिम् ॥ २७ ॥
जलं
तदुद्भवैश्छन्नं हित्वाज्ञो जलकाम्यया
मृगतृष्णामुपाधावेत्तथान्यत्रार्थदृक्स्वतः
॥ २८ ॥
देहादिभिर्दैवतन्त्रैरात्मनः
सुखमीहतः
दुःखात्ययं
चानीशस्य क्रिया मोघाः कृताः कृताः ॥ २९ ॥
आध्यात्मिकादिभिर्दुःखैरविमुक्तस्य
कर्हिचित्
मर्त्यस्य
कृच्छ्रोपनतैरर्थैः कामैः क्रियेत किम् ॥ ३० ॥
पश्यामि
धनिनां क्लेशं लुब्धानामजितात्मनाम्
भयादलब्धनिद्रा
णां सर्वतोऽभिविशङ्किनाम् ॥ ३१ ॥
राजतश्चौरतः
शत्रोः स्वजनात्पशुपक्षितः
अर्थिभ्यः
कालतः स्वस्मान्नित्यं प्राणार्थवद्भयम् ॥ ३२ ॥
शोकमोहभयक्रोध
रागक्लैब्यश्रमादयः
यन्मूलाः
स्युर्नृणां जह्यात्स्पृहां प्राणार्थयोर्बुधः ॥ ३३ ॥
सुख
ही आत्माका स्वरूप है। समस्त चेष्टाओंकी निवृत्ति ही उसका शरीर—उसके प्रकाशित होनेका स्थान है। इसलिये समस्त भोगोंको मनोराज्यमात्र समझकर
मैं अपने प्रारब्धको भोगता हुआ पड़ा रहता हूँ ॥ २६ ॥ मनुष्य अपने सच्चे स्वार्थ
अर्थात् वास्तविक सुखको, जो अपना स्वरूप ही है, भूलकर इस मिथ्या द्वैतको सत्य मानता हुआ अत्यन्त भयङ्कर और विचित्र जन्मों
और मृत्युओंमें भटकता रहता है ॥ २७ ॥ जैसे अज्ञानी मनुष्य जलमें उत्पन्न तिनके और
सेवार से ढके हुए जल को जल न समझकर जलके लिये मृगतृष्णा की ओर दौड़ता है, वैसे ही अपनी आत्मा से भिन्न वस्तु में सुख समझनेवाला पुरुष आत्मा को
छोडक़र विषयों की ओर दौड़ता है ॥ २८ ॥ प्रह्लादजी ! शरीर आदि तो प्रारब्धके अधीन
हैं। उनके द्वारा जो अपने लिये सुख पाना और दु:ख मिटाना चाहता है, वह कभी अपने कार्यमें सफल नहीं हो सकता। उसके बार-बार किये हुए सारे कर्म
व्यर्थ हो जाते हैं ॥ २९ ॥ मनुष्य सर्वदा शारीरिक, मानसिक
आदि दु:खोंसे आक्रान्त ही रहता है। मरणशील तो है ही, यदि
उसने बड़े श्रम और कष्टसे कुछ धन और भोग प्राप्त कर भी लिया तो क्या लाभ है ?
॥ ३० ॥ लोभी और इन्द्रियोंके वशमें रहनेवाले धनियोंका दु:ख तो मैं
देखता ही रहता हूँ। भयके मारे उन्हें नींद नहीं आती। सबपर उनका सन्देह बना रहता है
॥ ३१ ॥ जो जीवन और धनके लोभी हैं—वे राजा, चोर, शत्रु, स्वजन, पशु-पक्षी, याचक और कालसे, यहाँतक
कि ‘कहीं मैं भूल न कर बैठूँ, अधिक न
खर्च कर दूँ’—इस आशङ्का से अपने-आपसे भी सदा डरते रहते हैं ॥
३२ ॥ इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि जिसके कारण शोक, मोह,
भय, क्रोध, राग, कायरता और श्रम आदिका शिकार होना पड़ता है—उस धन और
जीवनकी स्पृहा का त्याग कर दे ॥ ३३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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