बुधवार, 7 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

यतिधर्मका निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद

तृष्णया भववाहिन्या योग्यैः कामैरपूर्यया
कर्माणि कार्यमाणोऽहं नानायोनिषु योजितः ॥ २३ ॥
यदृच्छया लोकमिमं प्रापितः कर्मभिर्भ्रमन्
स्वर्गापवर्गयोर्द्वारं तिरश्चां पुनरस्य च ॥ २४ ॥
तत्रापि दम्पतीनां च सुखायान्यापनुत्तये
कर्माणि कुर्वतां दृष्ट्वा निवृत्तोऽस्मि विपर्ययम् ॥ २५ ॥

(दत्तात्रेयजी कह रहे हैं) प्रह्लादजी ! तृष्णा एक ऐसी वस्तु है, जो इच्छानुसार भोगों के प्राप्त होने पर भी पूरी नहीं होती। उसी के कारण जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकना पड़ता है। तृष्णा ने मुझसे न जाने कितने कर्म करवाये और उनके कारण न जाने कितनी योनियोंमें मुझे डाला ॥ २३ ॥ कर्मोंके कारण अनेकों योनियोंमें भटकते-भटकते दैववश मुझे यह मनुष्ययोनि मिली है, जो स्वर्ग, मोक्ष, तिर्यग्योनि तथा इस मानवदेहकी भी प्राप्तिका द्वार हैइसमें पुण्य करें तो स्वर्ग, पाप करें तो पशु-पक्षी आदिकी योनि, निवृत्त हो जायँ तो मोक्ष और दोनों प्रकारके कर्म किये जायँ तो फिर मनुष्य-योनिकी ही प्राप्ति हो सकती है ॥ २४ ॥ परंतु मैं देखता हूँ कि संसारके स्त्री-पुरुष कर्म तो करते हैं सुखकी प्राप्ति और दु:खकी निवृत्तिके लिये, किन्तु उसका फल उलटा होता ही हैवे और भी दु:खमें पड़ जाते हैं। इसीलिये मैं कर्मोंसे उपरत हो गया हूँ ॥ २५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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