॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – तेरहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
यतिधर्मका
निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद
तृष्णया
भववाहिन्या योग्यैः कामैरपूर्यया
कर्माणि
कार्यमाणोऽहं नानायोनिषु योजितः ॥ २३ ॥
यदृच्छया
लोकमिमं प्रापितः कर्मभिर्भ्रमन्
स्वर्गापवर्गयोर्द्वारं
तिरश्चां पुनरस्य च ॥ २४ ॥
तत्रापि
दम्पतीनां च सुखायान्यापनुत्तये
कर्माणि
कुर्वतां दृष्ट्वा निवृत्तोऽस्मि विपर्ययम् ॥ २५ ॥
(दत्तात्रेयजी
कह रहे हैं) प्रह्लादजी ! तृष्णा एक ऐसी वस्तु है, जो
इच्छानुसार भोगों के प्राप्त होने पर भी पूरी नहीं होती। उसी के कारण जन्म-मृत्यु के
चक्कर में भटकना पड़ता है। तृष्णा ने मुझसे न जाने कितने कर्म करवाये और उनके कारण
न जाने कितनी योनियोंमें मुझे डाला ॥ २३ ॥ कर्मोंके कारण अनेकों योनियोंमें
भटकते-भटकते दैववश मुझे यह मनुष्ययोनि मिली है, जो स्वर्ग,
मोक्ष, तिर्यग्योनि तथा इस मानवदेहकी भी
प्राप्तिका द्वार है—इसमें पुण्य करें तो स्वर्ग, पाप करें तो पशु-पक्षी आदिकी योनि, निवृत्त हो जायँ
तो मोक्ष और दोनों प्रकारके कर्म किये जायँ तो फिर मनुष्य-योनिकी ही प्राप्ति हो
सकती है ॥ २४ ॥ परंतु मैं देखता हूँ कि संसारके स्त्री-पुरुष कर्म तो करते हैं
सुखकी प्राप्ति और दु:खकी निवृत्तिके लिये, किन्तु उसका फल
उलटा होता ही है—वे और भी दु:खमें पड़ जाते हैं। इसीलिये मैं
कर्मोंसे उपरत हो गया हूँ ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
💐🍂🌹जय श्री हरि: 🙏🙏🙏
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