॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – चौदहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
गृहस्थसम्बन्धी
सदाचार
कुर्याद्
आपरपक्षीयं मासि प्रौष्ठपदे द्विजः ।
श्राद्धं
पित्रोर्यथावित्तं तद्बन्धूनां च वित्तवान् ॥ १९ ॥
अयने
विषुवे कुर्याद् व्यतीपाते दिनक्षये ।
चन्द्रादित्योपरागे
च द्वादश्यां श्रवणेषु च ॥ २० ॥
तृतीयायां
शुक्लपक्षे नवम्यामथ कार्तिके ।
चतसृष्वप्यष्टकासु
हेमन्ते शिशिरे तथा ॥ २१ ॥
माघे
च सितसप्तम्यां मघाराकासमागमे ।
राकया
चानुमत्या च मासर्क्षाणि युतान्यपि ॥ २२ ॥
द्वादश्यां
अनुराधा स्यात् श्रवणस्तिस्र उत्तराः ।
तिसृष्वेकादशी
वाऽऽसु जन्मर्क्षश्रोणयोगयुक् ॥ २३ ॥
त
एते श्रेयसः काला नॄणां श्रेयोविवर्धनाः ।
कुर्यात्
सर्वात्मनैतेषु श्रेयोऽमोघं तदायुषः ॥ २४ ॥
एषु
स्नानं जपो होमो व्रतं देवद्विजार्चनम् ।
पितृदेवनृभूतेभ्यो
यद् दत्तं तद्ध्यनश्वरम् ॥ २५ ॥
संस्कारकालो
जायाया अपत्यस्यात्मनस्तथा ।
प्रेतसंस्था
मृताहश्च कर्मण्यभ्युदये नृप ॥ २६ ॥
धनी
द्विजको अपने धनके अनुसार आश्विन मासके कृष्णपक्षमें अपने माता-पिता तथा उनके बन्धुओं
(पितामह,
मातामह आदि) का भी महालय श्राद्ध करना चाहिये ॥ १९ ॥ इसके सिवा अयन
(कर्क एवं मकरकी संक्रान्ति), विषुव (तुला और मेषकी
संक्रान्ति), व्यतीपात, दिनक्षय,
चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहणके समय, द्वादशीके
दिन, श्रवण, धनिष्ठा और अनुराधा
नक्षत्रोंमें, वैशाख शुक्ला तृतीया (अक्षय तृतीया), कार्तिक शुक्ला नवमी (अक्षय नवमी), अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन—इन चार
महीनोंकी कृष्णाष्टमी, माघशुक्ला सप्तमी, माघकी मघा नक्षत्रसे युक्त पूर्णिमा और प्रत्येक महीनेकी वह पूर्णिमा,
जो अपने मास-नक्षत्र, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, आदिसे युक्त
हो—चाहे चन्द्रमा पूर्ण हों या अपूर्ण; द्वादशी तिथिका अनुराधा, श्रवण, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपदाके
साथ योग, एकादशी तिथिका तीनों उत्तरा नक्षत्रोंसे योग अथवा
जन्म-नक्षत्र या श्रवण नक्षत्रसे योग—ये सारे समय पितृगणोंका
श्राद्ध करने योग्य एवं श्रेष्ठ हैं। ये योग केवल श्राद्धके लिये ही नहीं, सभी पुण्यकर्मोंके लिये उपयोगी हैं। ये कल्याणकी साधनाके उपयुक्त और शुभकी
अभिवृद्धि करनेवाले हैं। इन अवसरोंपर अपनी पूरी शक्ति लगाकर शुभ कर्म करने चाहिये।
इसीमें जीवनकी सफलता है ॥ २०—२४ ॥ इन शुभ संयोगोंमें जो
स्नान, जप, होम, व्रत
तथा देवता और ब्राह्मणोंकी पूजा की जाती है अथवा जो कुछ देवता, पितर, मनुष्य एवं प्राणियों को समर्पित किया जाता है,
उसका फल अक्षय होता है ॥ २५ ॥ युधिष्ठिर ! इसी प्रकार स्त्री के
पुंसवन आदि, सन्तान के जातकर्मादि तथा अपने यज्ञ-दीक्षा आदि
संस्कारों के समय, शव-दाह के दिन या वार्षिक श्राद्ध के
उपलक्ष्य में अथवा अन्य माङ्गलिक कर्मों में दान आदि शुभ कर्म करने चाहिये ॥ २६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌼🍂🌹जय श्री हरि: !!🙏🙏
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